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________________ ८८ सम्यक्त्वशल्योद्धार से ऐसे नहीं कहते हैं कि मुझको वंदना, नमस्कार करो, स्नान कराओ, और मेरी पूजा करो । इस वास्ते वे तो षटकाया के रक्षक ही है, परंतु गणधर महाराजा की बताई शास्त्रोक्त विधि मुताबिक सेवकजन उनकी भक्ति करते हैं तो आज्ञायुक्त कार्य में जो हिंसा है सो स्वरूप से हिंसा है। परंतु अनुबंध से दया है ऐसे सूत्रों में कहा है। इस वास्ते सो कार्य कदापि अयुक्त नहीं कहा जाता है । तथा हम तुमको पूछते हैं कि तुम्हारे रिख-साधु, तथा साध्वी, त्रिविध त्रिविध जीव हिंसा का पञ्चक्खाण कर के नदियां उतरते हैं, गोचरी कर के ले आते हैं। आहार, निहार, विहारादि अनेक कार्य करते हैं जिन में प्रायः षटकाया की हिंसा होती है तो वे तुम्हारे साधु साध्वी षटकाया के रक्षक हैं कि भक्षक हैं ? सो विचार के देखो ! जेठमल के लिखने मुताबिक और शास्त्रोक्त रीति अनुसार विचार करने से तुम्हारे साधु साध्वी जिनाज्ञा के उत्थापक होने से षटकाया के रक्षक तो नहीं हैं परंतु भक्षक ही हैं। ऐसे मालूम होता है और उस से वे संसार में भटकने वाले हैं ऐसा भी निश्चय होता है। प्रश्न के अंतमें मूर्खशिरोमणि जेठमल ने ओघनियुक्ति की टीका का पाठ लिखा है। सो बिलकुल झूठा है, क्योंकि जेठमल के लिखे पाठ में से एक भी वाक्य ओघनियुक्ति की टीका में नहीं है । जेठमल का यह लिखना ऐसा है कि जैसे कोई स्वेच्छा से लिख देवे कि "जेठमल ढूंढक किसी नीच कुल में पैदा हुआ था। इस वास्ते जिनप्रतिमा का निंदक था ऐसा प्राचीन ढूंढक नियुक्ति में लिखा है ।" ॥ इति ॥ २०. सूर्याभ ने तथा विजयपोलीए ने जिनप्रतिमा पूजी है : वीस में प्रश्नोत्तर में जेठमल ने सूर्याभ देवता और विजयपोलीए की की जिनप्रतिमा की पूजा का निषेध करने वास्ते अनेक कुयुक्तियां की हैं। उन सर्व का प्रत्युत्तर अनुक्रम से लिखते हैं। १. आदि में सूर्याभ देवताने श्रीमहावीरस्वामी को आमल कल्पा नगरी के बाहिर अंबसाल वन में देखा तब सन्मुख जा के नमुत्थुणं कहा । उस में सूत्रकारने "ठाणं संपत्ताणं " तक पाठ लिखा है । इस वास्ते जेठमल पिछले पद कल्पित ठहराता है, परंतु यह जेठमल का लिखना मिथ्या है, क्योंकि वे पद कल्पित नहीं है । किंतु शास्त्रोक्त है । इस बाबत ११में प्रश्नोत्तर में खुलासा लिख आए हैं। २. पीछे सर्याभने कहा कि प्रभ को वंदना नमस्कार करने का महाफल है। इस प्रसंग में जेठमल ने जो सूत्रपाठ लिखा है सो संपूर्ण नहीं है। क्योंकि उस सूत्रपाठ के पिछले पदों में देवता संबंधी चैत्य की तरह भगवंत की पर्युपासना करूंगा ऐसे सूर्याभने १ स्वरूप से जिन में हिंसा और अनुबंध से दया ऐसे अनेक कार्य-करने की साधु-साध्वीयों को शास्त्रोमें आज्ञा दी हे । देखो श्री आचारांग-ठाणांग-उत्तराध्ययन दशवैकालिकप्रमुखा जैनशास्त्रा तथा आठ प्रकारकी दयाका स्वरुप भाषामें देखाना हो तो जैन तत्वादर्श का सप्तम परिच्छेद Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003206
Book TitleSamyaktva Shalyoddhara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Punyapalsuri
PublisherParshwabhyudaya Prakashan Ahmedabad
Publication Year1996
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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