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________________ ८७ बहुत लोगों के समक्ष धर्म देशना श्रवण करने को बैठना मर्यादापूर्वक ही होता है। परंतु सो इस में जेठमल की भूल नहीं है, क्योंकि ढूंढिये मर्यादा के बाहिर ही हैं। इसवास्ते यह नहीं कहा जा सकता है कि गौतमादि प्रभु को स्पर्श नहीं करते थे। और उन को स्पर्श करने की आज्ञा ही नहीं थी । क्योंकि श्रीउपासकदशांगसूत्र में आनंद श्रावक ने गौतमस्वामी के चरणकमल को स्पर्श किये का अधिकार है । और तुम ढूंढिये पुरुषोंका संघट्टा भी करना वर्जते हो तो उस का शास्त्रोक्त कारण दिखाओ ? तथा तुम जो पुरुषों का संघट्टा करते हो सो त्याग दो । तथा जेठमलने लिखा है कि "पांच अभिगम में सचित्त वस्तु त्याग के जाना लिखा है" सो सत्य है, परंतु यह सचित्त वस्तु अपने शरीर के भोग की त्यागनी कही है । पूजा की सामग्री त्यागनी नहीं लिखी है । क्योंकि श्रीनंदिसूत्र, अनुयोगद्वारसूत्र, तथा | उपासकदशांगसूत्र में कहा है कि तीन लोकवासी जीव "महिय पूइय" अर्थात् फूलों से भगवान् की पूजा करते हैं। जेठमल लिखता है कि "अभोगी देव की पूजा भोगी देव की तरह करते हैं" उत्तर-भगवान् अभोगी थे तो क्या आहार नहीं करते थे ? पानी नहीं पीते थे ? बैठते नहीं थे ? इत्यादि कार्य करते थे, या नहीं? करते ही थे परंतु उन का यह करना निर्जरा का हेतु है. और दसरे अज्ञानियों का करना कर्मबंधन का हेत है. तथा प्रभ जब साक्षात विचरते थे तब उन की सेवा, पूजा, देवता आदिकोंने की है सो भोगी की तरह या अभोगी की तरह र लेना ? प्रभु को चामर होते थे, प्रभु रत्नजडित सिंहासनों पर बिराजते थे। प्रभ के समवसरण में जलथल के पैदा भये फूलों की गोडे प्रमाण देवता वृष्टि करते थे। देवता तथा देवांगना भगवंत के समीप अनेक प्रकार के नाटक तथा गीतगान करते थे। इस वास्ते प्यारे ढूंढियों ! विचार करो कि यह भक्ति भोगी देव की नहीं थी। किंतु वीतरागदेव की थी और उस भक्ति के करने वाले महापण्यराशि बंधन के वास्ते ही इस रीति से थे और वैसे ही आज भी होती है। प्यारे ढूंढियो ! तुम भोगीअभोगी की भक्ति जुदी जुदी ठहराते हो। परंतु जिस रीति से अभोगी की भक्ति, वंदना, नमस्कारादि होती है उस ही रीति से भोगी राजा प्रमुख की भी करने में आती है। जब राजा आवे तब खडा होना पडता है। आदरसत्कार दिया जाता है इत्यादि बहुत प्रकार की भक्ति अभोगी की तरह ही होती है| और उसही रीति से तुम भी अपने ऋषि-साधुओंकी भक्ति करते हो तो वे तुम्हारे रिख भोगी हैं कि अभोगी ? सो विचार लेना ! फिर जेठमल लिखता है कि "जैसे पिता को भूख लगने से पुत्र का भक्षण करे यह अयुक्त कर्म है। वैसे तीर्थंकर के पुत्र समान षट्काय के जीवों को तीर्थंकर की भक्ति निमित्त हनते हो सो भी अयुक्त है" उत्तर-तीर्थंकर भगवंत अपने मुख त करते ढूंढिये श्रावक, श्राविका, अपने गुरु गुरणी के चरणों को हाथ लगा के वंदना करते हैं सो भी जेठमल की अकल मुताबिक आज्ञा बाहिर और बेअकल मालूम होते हैं !! Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003206
Book TitleSamyaktva Shalyoddhara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Punyapalsuri
PublisherParshwabhyudaya Prakashan Ahmedabad
Publication Year1996
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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