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प्रतीत होता है कि वे केवलज्ञान के बाद भी उस प्रदेश में नहीं गये । छद्मस्थावस्था में तो गये ही नहीं। सोमा निर्धारण इस प्रकार है:
कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा पूर्वस्यां दिशि यावदन मगधान् 'एतु' विहर्त्तुम् । श्रङ्गा नाम - चम्पाप्रतिबद्धो जनपदः । मगधा - राजगृह प्रतिबद्धो देश: । दक्षिणस्यां दिशि यावत् कौशाम्बीमेतुम् । प्रतीच्यां दिशि स्थूणाविषयं यावदेतुम् । उत्तरस्यां दिशि कुणालाविषयं यावदेतुम् । सूत्रे पूर्वदक्षिणादिपदेभ्यस्तृतीया निर्देशो लिङ्गव्यत्ययश्च प्राकृतत्वात् । एतावत् तावत् क्षेत्रमवधीकृत्य विहतु कल्पते । कुतः ? इत्याह एतावत् तावद् यस्मादार्य क्षेत्रम् | नो ' से ' तस्य निर्ग्रन्थस्य निर्मथ्या वा कल्पते 'श्रतः' एवंविधाद् श्रार्यक्षेत्राद् हम् । ' ततः परं ' बहिर्देशेषु श्रपि सम्प्रतिनृपतिकालादारभ्य यत्र ज्ञानदर्शनचारित्राणि 'उत्सर्पन्ति' स्फातिमासादयन्ति तत्र विहर्त्तव्यम् । 'इति' परिसमाप्तौ । ब्रवीमि इति तीर्थं करगणधरोपदेशेन, न तु स्वमनीषिकयेति सूत्रार्थः ।
बृहत्कल्पसूत्र वृत्तिसहित, विभाग ३. पृष्ठ ६०७
इस के अनुसार साधु या साध्वी को पूर्वदेश में श्रङ्गमगध तक विहार करना चाहिए, दक्षिण में कौशाम्बी तक, पश्चिम में स्थूणा ( कुरुक्षेत्र ) तक, उत्तर में कुणालदेश तक ।
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भगवान ने यह विधान इसलिये किया प्रतीत होता है क्योंकि विहार उन्हें छद्मस्थावस्था में अनार्यदेश में करते हुए बहुत उपसर्ग हुए थे । भगवान का अनुकरण करते हुए श्रन्यले ग वहां जायेंगे तथा उन पोड़ात्रों को सह न सकेंगे, इसलिये उन प्रदेशो में साधु के जाने का निषेध किया है । केवलज्ञान के बाद भगवान का वीतभयपट्टन की ओर जाने का उल्लेख है। वहां उनके साथ के साधुत्रों - को अत्यन्त कष्ट हुआ था, इसलिये प्रतीत होता है कि उपर्युक्त व्यवस्था
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