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नवयुग निर्माता
त्यागी हैं और आपने जो यतियों का कथन किया है उनका वेष तो प्रायः हमारे जैसा ही होता है । श्वेत चादर
ओढ़ते हैं, आहार पानी के लिये हमारी तरह ही झोली लटका कर जाते हैं और पास में दंडा भी नहीं होता। एक मात्र उनका मुख खुला हुआ होता है अर्थात् मुख पर मुंहपत्ति बांधी हुई नहीं होती। इसके सिवाय और तो कोई फर्क देखने में आता नहीं ?
श्री आत्मारामजी--जो बात प्रत्यक्ष है उसमें तो किसी प्रकार के सन्देह या अविश्वास को अवकाश ही नहीं रहता । तुम लोग जब गुजरात काठियावाड़ आदि देशों में भ्रमण करोगे तो तुम्हें स्वयं ही सब कुछ विदित हो जावेगा और मेरे कथन को सत्य प्रमाणित करने लगोगे । इसके अतिरिक्त जो यति इधर तुम्हारे देखने में आते हैं और जो यहां-पंजाब में पूज के नाम से प्रसिद्ध हैं वे तो प्रायः लौंका गच्छ के हैं इसलिये हमारा और इनका वेष प्रायः मिलता जुलता है कारण कि हम तुम भी तो उसी की परम्परा में से हैं अर्थात हमारे इस पंथ का मूल पुरुष लौका ही तो है । विशेषता केवल इतनी है कि ये यति लोग तो केवल लौंका की परम्परा में ही आबद्ध रहे और हमने उसके साथ लवजी को भी [जो कि लौंका से लगभग दो शताब्दी बाद उसकी गच्छ परम्परा में हुए हैं] अपनी परम्परा का आद्याचार्य माना, और उसके अनुसार मुंह बान्धना शुरु किया । तात्पर्य कि लौंका ने तो केवल मूर्ति का निषेध किया है मुंहपत्ति बान्धने का आदेश नहीं दिया यह तो उनकी शिष्य परम्परा में अनुमान दो शताब्दी जितने अन्तर में होने वाले लवजी महाराज की ही अपूर्व देन है जिसे हम एक क्षण भर के लिये भी मुंह से इधर उधर नहीं कर पाते ! बस इन यतियों की अपेक्षा हम में यही विशेषता है कि इनपर एक मात्र लौंका की कृपा है और हम लौंका लवजी दोनों के कृपा भाजन हैं ! सारांश कि लौंका गच्छ वाले मुंहपत्ति नहीं बान्धते, परन्तु लवजी ने लौकागच्छ में दीक्षित होने के बाद उससे पृथक् होकर मुंहपत्ति मुख पर बान्धनी प्रारम्भ करदी जिसका अनुसरण हम लोग कर रहे हैं, इतनी विभिन्नता के सिवाय अपनी और लौकागच्छीय यतियों की सामायिक प्रतिक्रमण आदि अन्य सब क्रियायें प्रायः मिलती जुलती ही चली आ रही हैं।
चम्पालालजी-महाराज ! यह आप क्या फरमा रहे हो ? ये यति लोग तो मन्दिर मूर्ति के उपासक हैं और हम उसका निषेध करते हैं फिर इनका हमारा मेल कैसा ? इसी प्रकार इनको लौंका गच्छ के भी कैसे माना जाय जब कि ये मूर्ति को मानते हैं । आप श्री ने ही कहा था कि जैन परम्परा में सबसे प्रथम मूर्तिपूजा का उत्थापक लौंका शाह नाम का एक गृहस्थ हुआ है अर्थात् सर्वप्रथम उसीने मूर्तिपूजा का विरोध किया है। पूज्य अमरसिंहजी महाराज ने भी यही फरमाया था कि मूर्तिपूजा के निषेधकों में श्री लौंकाशाह मुख्य हैं। सो कृपा करके इसका स्पष्टीकरण कीजिये ?
श्री आत्मारामजी-भाई चम्पालाल ! तुमने बड़े रहस्य की बात पूछी है, लो अब इसका खुलासा सुनो ! गुजरात देश के सुप्रसिद्ध नगर अहमदाबाद में लुका नाम का एक लिखारी रहता था जो कि जाति का दशा श्रीमाली वणिक था और ज्ञानजी यति के उपाश्रय में बैठ पुस्तकें लिखकर उसकी आमदनी से अपना
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