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साधु वेष का शास्त्रीय विवरण
के साधु भी तो होंगे, तब उनका वेष और उपकरणादि भी होंगे। इन दोनों में किस परम्परा का साधु वेष आगम सम्मत है | हमारा या उनका ?
श्री आत्मारामजी ज़रा हंसी में - वाह भाई ! वाह ! तुम लोगों ने तो कूप मंडूक जैसी बात कही है, जैसे कूप का मंडूक-[ सदा कूप में रहने वाला मेंडक - डड्ड ू ] समुद्र के विस्तार से अनभिज्ञ होने के कारण उसके अस्तित्व पर विश्वास नहीं करता इसी प्रकार का तुम्हारा यह कथन है ।
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मूर्तिपूजक सम्प्रदाय के साधु और साध्वी गुजरात, काठियावाड़, मालवा, मेवाड़ और मारवाड़ आदि देशों में टोले के टोले फिरते हुए दिखाई देते हैं । वे आज कल दो भागों में विभक्त हुए कहे जाते हैं । एक
कैद कपड़ा रखने वाले यति या गोरजी के नाम से प्रसिद्ध हैं वे लोग धन सम्पत्ति पास में रखने वाले मठधारियों की तरह परिग्रहधारी हैं। मकान, उपाश्रय आदि में ममत्व रखते हैं, परन्तु इनमें कई एक अच्छे विद्वान् और शास्त्रों के जानकार भी होते हैं । दूसरे पीत वस्त्रधारी होते हैं जो कि संवेगी के नाम से प्रसिद्ध हैं । ये साधु हमारी तरह पैदल विहार करते हैं किसी प्रकार का परिग्रह नहीं रखते, लोच करते, दूषण टालकर निर्दोष आहार लेते और प्रतिक्रमणादि श्रावश्यक क्रियाकाण्ड का नियमित रूप से आचरण करते हैं । इनमें भी अच्छे पंडित और आगमों के विशेषज्ञ होते हैं। हमसे इनमें इतनी विशेषता है कि ये लोग पति मुख पर नहीं बान्धते अपितु हाथ में रखते और बोलते समय उसे काम में लाते हैं, एवं अपने पास दंडा रखते हैं जो कि कहीं आते जाते समय उनके हाथ में रहता है। तथा कंधे पर कांबली और रजोहरण बगल में रखते हैं । इसलिये वेष में तो प्रत्यक्ष भेद दिखाई देता है । अब रही बात यह इन दोनों में आगम सम्मत वेष किसका है ? सो इसका खुलासा आगम पाठों से भलीभांति हो सकता है । इसके अतिरिक्त एक बात और भी ध्यान देने योग्य है, आगमों में साधु के कई एक उपकरणों का उल्लेख किया हैं परन्तु अपने मत के साधु उन आगम विहित उपकरणों को नहीं रखते और जो रखते हैं वे सब बिना परिमाण के, अपनी इच्छानुसार रखते हैं ।
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चम्पालालजी - महाराज ! यह तो आपने बिलकुल नई बात सुनाई है। मैं तो आज तक यही समझता रहा कि मन्दिराम्नाय वालों का और हमारा ढूँढ़क पंथियों का केवल मूर्ति को मानने और न मानने जितना ही फर्क है परन्तु आपके कथनानुसार तो उनके और हमारे में वेष सम्बन्धी भी बहुत अन्तर है । इसके सिवाय आपने जो यतियों-जो कि गोरजी के नाम से प्रसिद्ध हैं - का वर्णन किया है हम तो आज तक उन्हीं को मन्दिराम्नाय वालों के गुरु समझते रहे और उन्हीं को सन्मुख रख कर मन्दिराम्नाय वाले श्रावकों को कहते और उपालम्भ देते रहे कि तुम्हारे जो गुरु हैं वे तो परिग्रही हैं अर्थात कौडी पैसा पास में रखते हैं और मकान उपाश्रय आदि में ममत्व रखने वाले हैं जबकि शास्त्रों में गुरुओं-साधुयों को निर्ग्रन्थ के नाम से उल्लेख किया है जिसका अर्थ है सर्व प्रकार के परिग्रह का त्यागी, संयमशील और कषायरहित आत्मार्थो साधका । परन्तु आपने तो इस परंपरासे के ऐसे गुरुओं का भी निर्देश किया है जो कि हमारी तरह निष्परिग्रही और
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