________________
अध्याय १०
साधु वेष का शास्त्रीय विवरण
दिल्ली से विहार करने के बाद पृथक् पृथक् विचरते हुए श्री आत्मारामजी और श्री विश्नचन्दजी आदि का कुछ दिनों बाद एक स्थान में फिर मेल हो गया। संभवतः श्री आत्मारामजी का एक दो दिन पहले पधारना हुआ और श्री विश्नचन्दजी आदि का पीछे आगमन हुआ। श्री आत्मारामजी महाराज के दर्शनों से विश्नचन्दजी आदि साधु वर्ग को जो आनन्द प्राप्त हुआ, कल्पना जगत में तो उसे शारदी पूर्णिमा के चन्द्र दर्शन से प्राप्त होने वाले चकोर के आल्हाद से उपमित किया जा सकता है। इसी प्रकार श्री आत्मारामजी को भी उनके मिलने पर बहुत आनन्द हुआ। श्री विश्नचन्दजी आदि सभी ने महाराज श्री आत्मारामजी को विधिपूर्वक वन्दना नमस्कार करने के बाद सुखसाता पूछी, एवं अन्य साधुओं में भी यथाधिकार वन्दना व्यवहार हुआ और एक दूसरे ने एक दूसरे से सप्रेम भेंट की। दूसरे दिन नियत समय पर श्रीविश्नचन्द, चम्पालाल
और हाकमराय आदि साधु महाराज श्री आत्मारामजी की सेवा में उपस्थित हुए और प्रस्तावित वार्तालाप प्रारम्भ हुआ
श्री विश्नचन्दजी (हाथ जोडकर)-महाराज ! हमारे इस मत का श्रमण भगवान महावीर स्वामी की गच्छ परम्परा से बहिष्कृत होने का अधिकांश कारण मूर्तिपूजा और मुंहपत्ति ही प्रतीत होती है । श्वेताम्बर
और दिगम्बर दोनों परम्परा मूर्ति के उपासक हैं जब कि हमारा पंथ उसका बहिष्कार करता है । इसी प्रकार मुंहपत्ति का मुखपर बान्धना, अथवा हाथ में रखकर उसका शास्त्र मर्यारा से, शास्त्र पढते या बोलते समय सदुपयोग करना इन दोनों में से कौनसी विचार धारा आगम सम्मत है और कौनसी अागम बाह्य ये दोनों विषय बड़े जटिल और विशेष रूप से जानने योग्य हैं अतः इन दोनों के स्पष्टीकरण का तो कोई और समय निर्धारित कीजिये इस समय तो शास्त्र दृष्टि से जैन साधु का वेष कैसा होना चाहिये इसके स्पष्टीकरण की कृपा करें । इन दूसरे साधुओं के विचारानुसार मेरे इस कथन का तात्पर्य यह है कि जिस तरह हमारी परंपरा में साधु हैं, उनका वेष और उपकरण भी हैं, इसी तरह मन्दिर और मूर्ति को मानने वाली जैन परम्परा
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org