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________________ गुरु शिष्यों में मार्मिक वार्तालाप चम्पालाल और हाकमरायजी-श्री विश्नचन्दजी से हाथ जोड़ कर-गुरुदेव ! तब हम लोगों को किस मार्ग का अनुसरण करना चाहिये ? विश्नचन्दजी-जिसका अनुसरण महाराज आत्मारामजी कर रहे हैं और करेंगे। उससे भिन्न अब हमारा और कोई मार्ग नहीं । अब तो साधु जीवन का शेष भाग उसी सन्मार्ग का यात्री बनेगा जिस पर कि श्री आत्मारामजी महाराज चल रहे या चलेंगे। उनके जैसा सत्यनिष्ठ विचारशील आगमाभ्यासी गीतार्थ महात्मा हमारे इस पंथ में और तो कोई दृष्टिगोचर होता नहीं । पहले भी था इसकी तो कल्पना भी व्यर्थ है। उनका एक एक वचन हृदय के अन्तस्तल को स्पर्श करता जाता है । भाई ! सच तो यह है कि उनकी तलस्पर्शी निर्मल प्रवचन वारिधारा से मेरे हृदय का समस्त सन्देह मल धुल गया अब उसमें किसी प्रकार के सन्देह को अवकाश नहीं रहा इसलिये मैं तो अब सर्वे सर्वा उन्हीं के सद्विचारों का अनुगामी हूँ क्यों कि वे सर्वथा असंदिग्ध सत्यपूत और शास्त्रीय हैं । हम लोगों को महाराज श्री आत्मारामजी का अधिक से अधिक कृतज्ञ होना चाहिये' क्योंकि उन्होंने ज्ञान की दीर्घकालीन सतत आराधना से और अनेक मननशील उदारचेता विद्वानों के प्रगाढ परिचय से धर्म सम्बन्धी जिस निर्मल ज्ञान राशि को उपार्जित किया उससे हमारे हृदयों के चिरसंचित अज्ञानान्धकारको दूर करके उनमें नई ज्ञान ज्योति को प्रज्वलित करने की साधुजनोचित महती उदारता दिखाई है । अगर मैं अपने हार्द को तुम लोगों के सन्मुख स्पष्ट शब्दों में रक्खं तो सच जानिये कि दिल्ली का यह चतुर्मास हम सब के लिये और खासकर मेरे लिये तो सर्वथा नवजीवन के संचार का सन्देश वाहक प्रमाणित हुआ है । आगे तुम्हारी तुम जानों ? सभी हाथ जोड़कर-पूज्य गुरुदेव! आप श्री ने जो कुछ फरमाया वह अक्षरशः सत्य है । हमारे हृदय भी इसी प्रकार की पुनीत भावना से भावित हो चुके हैं । हम तो केवल आपकी अनुमति चाहते थे सो हमें मिल गई, और बस । अब तो पहले की तरह आप श्री के चरण चिन्ह ही हमारा गन्तव्य मार्ग है और जीवन पर्यन्त रहेगा। श्री विश्नचन्दजी-सुनो भाई ! हमने किसी लोभ के खातिर सिर नहीं मुंडाया । हमने तो आत्मकल्याण के लिये श्रमण भगवान महावीर स्वामी के उपदिष्ट मार्ग का अनुगामी समझ कर इस पंथ को अपनाया था यदि यह उस मार्ग का अनुसरण नहीं करता एवं महावीर स्वामी की परंपरा में इसका कोई स्थान नहीं तो फिर इससे चिपटे रहना भी कोई बुद्धिमत्ता नहीं है । इस पर भी मैं तो तुम्हें इस समय यही आदेश देता हूँ कि जब कभी तुम लोगों को श्री आत्मारामजी महाराज का सत्संग प्राप्त हो उनसे सन्देहास्पद हर एक वस्तु का स्पष्टीकरण करते रहना चाहिये । तदनन्तर वे अपने तथा हम सबके लिये जो मार्ग निर्दिष्ट करें उसीपर चलने के लिये प्रस्तुत रहना चाहिये । विश्नचन्दजी के उक्त कथन को सुनकर चम्पालाल आदि सभी शिष्यों ने हाथ जोड़ नतमस्तक होकर तहत वचन कहा और सभी उठकर अपने अपने आवश्यक कार्यों में लग गये । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003203
Book TitleNavyuga Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayvallabhsuri
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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