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________________ अध्याय गुरु शिष्यों में मार्मिक कार्तालाप श्री आत्मारामजी महाराज से अलग होने के बाद श्री विश्नचन्द और उनके शिष्यों का आपस में वार्तालाप होता रहा । एक दिन चम्पालालजी अपने गुरु श्री विश्नचन्दजी से बोले-गुरुदेव ! देखा श्री रत्नचंदजी के सम्पर्क में आने के बाद महाराज आत्मारामजी के श्रद्धान में कितना अन्तर पड़गया है ? ___ विश्नचन्दजी हां भाई ! तुम्हारा कथन यथार्थ है । संगति का फल अवश्य होता है. अच्छी का अच्छा और बुरी का बुरा । आगे हम सुनते थे कि श्री रत्नचन्दजी की श्रद्धा में बहुत परिवर्तन होगया है, उनके श्रद्धालु श्रावक मंदिर में जाते हैं, मस्तक पर तिलक लगाते हैं और जब उनके पास व्याख्यान सुनने को जाते हैं तब सामायिक करते समय मुंहपत्ती वान्ध लेते हैं । यह बात श्री आत्मारामजी के कथन से भी प्रमाणित होती है । एक दिन प्रसंग आने पर मैंने उनसे पूछा कि महाराज ! श्री रत्नचन्दजी के सम्बन्ध में ऐसी बातें सुनने में आती हैं, आपतो उनके सम्पर्क में अधिक रहे हैं और उनसे अभ्यास भी किया है इस लिये आपको तो सारी परिस्थिति का प्रत्यक्ष अनुभव होंगा, श्राप कृपा करके बतलायें कि वास्तव में बात क्या है ? मेरे इस कथन को सुनकर महाराज आत्मारामजी ने फर्माया-कि तुम जो कुछ कह रहे हो वह अधिकांश ठीक ही है, उनके श्रावक मंदिर में जाते और मस्तक पर तिलक लगाते एवं सामायिक मुंह बान्धकर करते हैं । पहले पहल जब मैंने देखा तो मुझे भी तुम्हारी तरह कुछ विस्मय सा हुआ और मैंने उनसे पूछाकि महाराज ! यह क्या माजरा है ? तब उन्होंने कुछ मुस्कराते हुए कहा कि भाई ! ये गृहस्थ हैं, व्यवहार में अपनी इच्छा का अधिक प्रयोग करते हैं, फिर किसी की मनोवृत्ति पर अनुचित अंकुश रखना भी साधु मर्यादा से बाहर है । और यदि शास्त्र दृष्टि से विचार किया जाय तो ये लोग कोई अनुचित काम नहीं करते। भगवान के मन्दिर में जाते हैं वहां प्रभु मूर्ति के सन्मुख बैठकर वीतराग देव के गुणों का गान करते हुए अपने सम्यक्त्व को निर्मल करते हैं, इसमें क्या बुराई है ? फिर यहां श्राकर व्याख्यान सुनते और सामायिक लेकर धर्म ध्यान करते हैं । मेरी दृष्टि में तो सामायिक मुंह बान्ध कर करें या खुले मुंह करें इसमें कुछ भी विशेषता नहीं, विशेषता तो समभाव में है । अभी तो तुम यहां आये ही हो जब आगमों का अच्छी तरह से गम्भीरता पूर्वक अभ्यास करोगे तब तुम को स्वयं ही सब बातों का अनुभव हो जावेगा इत्यादि इत्यादि । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003203
Book TitleNavyuga Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayvallabhsuri
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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