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________________ साधु वेष का शास्त्रीय विवरण निर्वाह किया करता था । एक दिन एक पुस्तक लिखते हुए पुस्तक के सात पृष्ठ बिना लिखे छोड़ दिये । जब पुस्तक लिखाने वाले ने पुस्तक लेकर उसका मिलान किया तो उसमें सात पृष्ठ छोड़े हुए मिले। तब उसने लुंका से आकर कहा कि इसमें सात पृष्ठ छूट गये हैं इन्हें पूरा कीजिये अन्यथा मैं लिखाई का एक पैसा भी नहीं "दूंगा। यह सुन लिखारी लौंका क्षमा मांगने के बदले उससे झगड़ने लगा, दोनों को लड़ते झगडते देख ari और लोग भी इकट्ठे होगये और लौंके के इस जघन्य कृत्य की सब निन्दा करने लगे । अन्त में जब वह लड़ने झगड़ने से नहीं हटा तब उपाश्रय के यतियों के आदेशानुसार लोगों ने उसे पीटा और उपाश्रय से बाहर निकाल दिया । नगर के लोगों से कह दिया कि कोई भी व्यक्ति अब इससे पुस्तक न लिखावे | यतियों द्वारा इस प्रकार अपमानित हुए लौंके ने प्रतिकार की भावना से जैन साधु और जिन प्रतिमा आदि की निन्दा करनी आरम्भ करदी * परन्तु वहां पर उसकी किसी ने एक भी नहीं सुनी। तब वह हताश होकर अहमदाबाद से लींबड़ी ग्राम में आया यह ग्राम अहमदाबाद से अनुमान ४६ कोस की दूरी पर है। यहां उसकी बिरा दूरी का “लखमसी” नाम का एक राजकीय व्यक्ति था। उसके पास जाकर वह बहुत रोया पीटा। और अहमदाबाद की सारी घटना को अपनी इच्छानुसार नया रूप देकर कह सुनाया जैसे कि मैं श्रमण भगवान् महावीर के बताये हुए सच्चे मार्ग का उपदेश कर रहा था परन्तु मेरा यह सच्चा मार्ग इन यति लोगों के प्रतिकूल था इसलिये उन्होंने मेरे ऊपर झूठी तोहमत लगा कर मेरा अपमान किया, और मुझे यतियों और श्रावकों पीटा, जिसके फलस्वरूप, मैं अहमदाबाद से निकल कर यहां तुम्हारे पास आश्रय लेने आया हूँ । यदि तुम मेरी सहायता करो तो मैं भगवान के सच्चे मतका प्रचार कर पाऊं । ७३ श्री लखमसी - लींबड़ी के राज्य में तो तुमको अपने नये मत का प्रचार करने में कोई कष्ट नहीं हो सकता । तुम्हारे ऊपर कोई व्यक्ति बलात्कार नहीं करेगा । तुम्हारे लिए खान पान आदि का प्रबन्ध मेरे घर से रहेगा और कभी कभी मैं तुम्हारा प्रवचन भी सुना करू ंगा। तुम मेरे जाति बन्धु हो, फिर मेरे पास चलकर Jain Education International ये हो इसलिये नैतिक रूप से मेरा यह कर्तव्य हो जाता है कि मैं तुम्हारी अधिक के अधिक सहायता करूं । यह सुन लुंका को बड़ी प्रसन्नता हुई और स्वछन्दता से अपने मत का [जो कि अनार्य संस्कृति प्रभाव का किंपाक फल था ] लगा प्रचार करने । अनार्य संस्कृति के जघन्य प्रभाव से प्रभावित हुए लौंका ने प्रतिकार की भावना को सम्मुख रखकर सर्व प्रथम जैन यतियों और जिनप्रतिमा का उत्थापन करना आरम्भ किया । कहने लगा- ये साधु नहीं श्रपितु भ्रष्टाचारी हैं ! निर्दयी और दम्भी हैं ! भगवान के नाम से विपरीत उपदेश देकर अपना नीच स्वार्थ सिद्ध करने का प्रयत्न करते हैं इसलिये इनको साधु मानना पाप है। और जड़मूर्ति पूजा करना और उसको भगवान् मानना तो इससे भी अधिक पाप है। मैंने बहुत वर्षों तक मूर्ति की * लौंका पर अनार्य संस्कृति - जिसका मुख्य उद्देश्य मन्दिर और मूर्ति की उत्थापना करना है - का और यतियों द्वारा किये गये अपमान का बहुत बुरा प्रभाव पड़ा इसके लिये देखो - "लोकाशाह" निर्माता मु० श्रीज्ञानसुन्दरजी । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003203
Book TitleNavyuga Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayvallabhsuri
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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