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नवयुग
निर्माता
उपासना की है, $ और पत्थर को ही परमात्मा समझता रहा। अन्त में जब मुझे यथार्थ वस्तु का ज्ञान हुआ तब मैंने पत्थर की उपासना करनी छोड़ दी। इसी वस्तु तत्त्व का सदुपदेश देने आया हूँ आप लोगों को मेरे इस यथार्थ कथन पर अवश्य ध्यान देना और उसे अपनाना चाहिये । यह था लौंके के उपदेश का सारांश जिसे उसने निरन्तर २५ वर्ष तक लोगों को दिया । बहुत से शास्त्रों को मानने से इनकार कर दिया और जिन्हें स्वीकार किया उनमें आये हुए मूर्तिपूजा सम्बन्धी पाठों के येनकेन प्रकारेण अर्थ बदलने का अनुचित प्रयत्न किया परन्तु उपदेश का जनता पर कुछ असर न हुआ, अर्थात् उसके उपदेश से एक भी व्यक्ति उसके मत में दीक्षित नहीं हुआ । अन्त में [वि० सं० १५३३ में ] बहुत प्रयत्न करने पर भारगा नाम के एक वणिक पुत्र ने लौके के उपदेश से साधु वेष अंगीकार किया जो कि भारा ऋषि के नाम से सम्बोधित किया जाने लगा । 'फिर [सं० १५६८ में ] भारणा का शिष्य रूपजी हुआ, रूपजी का शिष्य [सं० १५७६ में] ऋषि जीवाजी हुआ, उसका शिष्य [सं० १५८७ में] वृद्धवरसिंह और उसका शिष्य [सं० १६०६ में] वरसिंहजी हुआ और वर सिंहजी का शिष्य [सं० १६४६ में] जसवन्तजी हुआ । यहां आकर लौंके की परम्परा के तीन नाम निर्दिष्ट हुए (१) गुजराती (२) नागोरी और (३) उत्तराधी ।
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तब इस परम्परा में जो लोग कुछ लिख पढ़ कर परमार्थ को समझने लग गये और सूत्रार्थ निर्णय से उन्हें मूर्तिपूजा गम सम्मत प्रतीत होने लगी वे लोग लौंका के इस मूर्तिपूजा सम्बन्धी सिद्धान्त को अशास्त्रीय समझ कर फिर से अपनाने लगे । फल स्वरूप लौंकागच्छ के उदार मनोवृत्ति के विद्वान यतियों ने अनेक | मन्दिरों और मूर्तियों की प्रतिष्ठा कराई अनेक सद् ग्रन्थ लिखे और अपने उपाश्रयों में प्रतिष्ठित जिन प्रतिमाओं ) को आदरणीय स्थान दिया । इसलिये ये यतिलोग लौंका की परम्परा में होते हुए भी मूर्ति को मानते हैं । इन यतियों का हमारे पंजाब देश में काफी प्रभाव रहा । अतः मूर्ति उपासक होते हुए भी इनके वेष और | सामायिक प्रतिक्रमणादि आवश्यक क्रियाओं में विशेष अन्तर नहीं आया । और मुंहपत्ति का बान्धना तो केवल लवजी से ही शुरु हुआ है अतः इनके सम्बन्ध में उसकी चर्चा का तो कोई स्थान ही नहीं है
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विश्न चन्दजी - कृपानिधे ! आप श्री ने चम्पालाल के प्रश्न का खुलासा करते हुए प्रसंगोपात्त जो कुछ
($) लंका पहले कट्टर मूर्तिपूजक था, प्रतिदिन मन्दिर में जाकर प्रभु मूर्ति की पूजा किया करता और मस्तक पर केसर का तिलक लगाता । [ मूर्ति पूजा का इतिहास पृ० ६- ११ मुनि श्री ज्ञानसुन्दरजी ]
$ पंजाब के पूर्व भाग में लुम्पक मत के उत्तराध गच्छ के यतियों की प्रधानता थी । इनका मुख्य उपाश्र अम्बाला शहर में था, जिसके अधीन कई छोटे २ उपाश्रय थे। जैसे- साढौरा, सुनाम, समाणा, रोपड़ श्रादि । उत्तराधगच्छ के मूल पुरुष जटमल या जऋषि थे, जो सं० १६५० के लगभग हुए। इनकी शिष्य परम्परा ग्यारह पीढ़ी तक चली । अन्तिम शिष्य उत्तम ऋषि थे जो सं० १६३४ में स्व० श्रीमद् विजयानन्द सूरि के हाथ से दीक्षित होकर मुनि उद्योत विजय के नाम से प्रसिद्ध हुए । इनका पुस्तक भंडार श्री श्रात्मानन्द जैन सभा अम्बाला के पास है ।
[क्रान्तिकारी जैनाचार्य की भूमिका
५० २५ ले० - डा. बनारसीदासजी एम. ए. पी. एच डी.]
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