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नवयुग निर्माता
प्रश्न के उत्तर में भगवान स्वयं फर्माते हैं-गौतम ! मेरा यह शासन २१००० वर्ष अर्थात् पांचवें आरे के अन्त तक चलेगा ?
आत्मारामजी-तुम्हारे इस कथन का आशय तो यह प्रतीत होता है कि तुम एक मात्र अपने को ही जैन समझते हो ? अथवा यूं कहिये कि तुम्हें अपनी इस परम्परा के अतिरिक्त और कोई दूसरी जैन परम्परा ही दिखाई नहीं देती ?
हाकमराय- हां महाराज ! बात तो ऐसी ही है, आज तक तो यही समझता रहा कि श्रमण भगवान महावीर स्वामी के धर्म का यथावत अनुसरण करने वाले एक मात्र हम ही हैं।
आत्माराम जी-नहीं भाई ! ऐसा नहीं-एक और भी जैन परम्परा है जो हमसे बहुत प्राचीन है । वीर निर्वाण ६०६ [वि० सं० १३६] से पूर्व यह परम्परा एक अथच अविभक्त थी। उसके बाद इसमें दो विभाग हो गये जो कि एक दिगम्बर दूसरे श्वेताम्बर के नाम से आज विख्यात हैं । दिगम्बर मान्यता के अनुसार वीर निर्वाण से ६०६ वि० सं० १३६ में श्वेताम्बर मत या परम्परा का जन्म हुआ और श्वेताम्बर सम्प्रदाय के सिद्धान्तानुसार वीर निर्वाण से ६०६ वि० सं० १३६ वर्ष में दिगम्बर मत की उत्पत्ति हुई कही जाती है । इन दोनों की मान्यता में केवल तीन वर्ष का अन्तर है । अर्थात् वीर निर्वाण से ६०६ वर्ष पूर्व तो ये दोनों परम्परा एक अथच अभिन्नः केवल जैन परम्परा या वीर परम्परा के नाम से प्रसिद्ध थी । वीर परम्परा की श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों शाखाओं में मूर्ति पूजा को असाधारण स्थान प्राप्त है अर्थात् दोनों ही मूर्ति पूजक हैं । इसके अतिरिक्त जब से ये दोनों विभिन्न नामों से अस्तित्व में आई तब से इनकी पट्टावलियां भी जुदी २ निर्मित हुई जो कि श्वेताम्बर पट्टावली और दिगम्बर पट्टावली के नाम से प्रसिद्ध हैं। उन पट्टावलियों में अमुक २ सम्वत् में अमुक २ आचार्य हुए उन्होंने अमुक २ सम्बत् में अमुक २ क्षेत्र में देव मंदिर की प्रतिष्टा कराई, अमुक २ जिन प्रतिमा की स्थापना कराई, एवं अमुक सम्वत् में अमुक ग्रन्थ की रचना की तथा अमुक सम्वत् में अमुक सम्प्रदाय के प्रसिद्ध श्राचार्य के साथ शास्त्रार्थ किया इत्यादि जो जो उल्लेख हैं वे सब ऐतिहासिक दृष्टि में पूरे उतरते हैं इसलिये वे पट्टावलिये विश्वास के योग्य ठहरती हैं। इसके विपरीत हमारी किसी भी पट्टावली में किसी सुप्रसिद्ध श्राचार्य या ऋषि मुनि का नाम और उसके बनाये हुऐ सद्ग्रन्थों का उल्लेख नहीं । हो भी कहां से जबकि लवजी और लौंका से पहले हमारे इस मत का अस्तित्व ही नहीं था-जन्म ही नहीं हुआ था। तथा ये दोनों ही सम्प्रदाय मूर्ति पूजक हैं और हम मूर्ति के उत्थापक, इसलिये इनमें भी हमारा समावेश नहीं हो सकता । इसके सिवा श्वेताम्बर और दिगम्बर सम्प्रदाय में तो जैन धर्म का प्रतिनिधित्व सिद्ध होता है कारण कि ये दोनों मन्दिर और मूर्ति के मानने वाले हैं। और इनके श्री शत्रुञ्जय, गिरनार, समेतशिखर आदि तीर्थ संसार प्रसिद्ध हैं, ये तीर्थकरों की निर्वाण भूमि
* "गोयमा ! जंबुदीवे भार हेवासे इमीसे अवसप्पिणीए ममं एकवीसं वास सहस्साई तित्थे अणुसजिस्सई"
[शत० २० उद्दे०८
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