________________
सत्य प्ररूपणा की ओर
श्री श्रआत्मारामजी-इस विषय का कुछ खुलासा तो पहले किया भी गया है, शायद तुमने नहीं सुना । अपनी जो पट्टावलियां हैं वे विश्वास के योग्य नहीं हैं, उनमें जिन २ नामों का उल्लेख है उनका अस्तित्व किसी तरह से भी प्रमाणित नहीं होता वे सब कल्पना प्रसूत हैं । लोग जब हरिद्वार जाते हैं तो वहां के अनेक पंडे उनको अपना २ यजमान कहते हैं परन्तु जब तक कोई पंडा अपनी बही निकाल कर उसमें से हरिद्वार आने वाले यात्री के पिता, पितामह आदि के नाम उनके हस्ताक्षरों सहित नहीं बतला देता तब तक उसे विश्वास नहीं आता । एवं किसी मृतक की सम्पत्ति पर अदालत में झगड़ने वाले व्यक्तियों में से अदालत उसीके हकमें फैसला देगी जिसका कुर्सी नामा उस मृतक से मेल खाता हो, इसलिये यदि हम अपने को भगवान महावीर की परम्परा में परिगणित करने का दावा करते हैं तो हमारा भी कर्तव्य हो जाता है कि हम अपनी परम्परा को अविच्छिन्न रूपसे भगवान महावीर स्वामी तक ले जाने का कोई अकाट्य प्रमाण उपस्थित करें । परन्तु अपने पास तो यति लवजी से आगे अपनी परम्परा को ले जाने का कोई साधन ही नहीं, वह तो लवजी तक पहुँच कर समाप्त हो जाती है। कारण कि जैन परम्परा में सबसे प्रथम डोरा डालकर मुख पर दिन रात पट्टी बांध रखने की प्रथा लवजी ने ही चलाई है इससे पूर्व जैन परम्परा में इस प्रथा का नामोंनिशान भी नहीं था । लवजी लौंकागन्छ की परम्परा में होने वाले साधु बजरंगजी के शिष्य थे । बजरंगजी को सारा दिन मुंह बान्धे रखना स्वीकार नहीं था और नाही उसके गच्छ वाले बान्धते थे । गुरु से किसी बात पर झगड़ा हो जाने से लवजी उनसे अलग हो गये और दिन भर मुख बान्ध रखने की प्रथा प्रारम्भ करदी । इसलिये हमारी परम्परा का साक्षात् सम्बन्ध तो लवजी से है न कि भगवान महावीर स्वामी से । यह एक सोचा समझा हुआ ऐतिहासिक तथ्य है जिसे किसी प्रकार भी अन्यथा नहीं किया जा सकता ।
और लवजी के गुरु बजरंगजी जिस लौंका गच्छ के यति थे वह गच्छ भी लौंकाशाह नाम के एक गृहस्थ से बिक्रम की सोलवीं शताब्दी में प्रचलित हुआ और मूर्ति पूजा का विरोध भी जैन परम्परा में उसी से प्रारम्भ हुआ इससे पहले जैन परम्परा में मूर्ति पूजा के विरुद्ध किसी जैन आचार्य ने एक शब्द भी कहा या एक अक्षर भी लिखा हो ऐसा किसी भी शास्त्रीय या ऐतिहासिक प्रमाण से साबित नहीं होता। ऐसी परिस्थिति में हमारा यह ढूंढक पंथ अधिक से अधिक लौंकाशाह तक ही पहुंच सकता है इसके आगे उसकी गति नहीं। लौंका ने मूर्ति का विरोध किया, हम भी मूर्ति के विरोधी हैं, और लवजी ने मुंह बान्धना शुरु किया, हम भी-[ जैसे कि तुम देख रहे हो] सर्वे सर्वा उसी का अनुकरण ही कर रहे हैं । इसलिये वस्तु स्थिति का यदि तटस्थ मनोवृति से विचार किया जाय तो हमारे इस पंथ के मूल पुरुष लौंका और लवजी हैं न कि श्रमण भगवान महावीर स्वामी ।
हाकमराय-हाथ जोड़ कर-कृपा नाथ ! आपके वक्तव्य से यह तो सुनिश्चित हो गया कि अपने पंथ का सम्बन्ध श्रमण भगवान महावीर से नहीं किन्तु लौंका या लवजी से है, तो क्या भगवान महावीर का शासन विच्छिन्न हो गया ? ऐसा तो माना नहीं जा सकता. कारण कि श्री भगवती सूत्र में गौतम स्वामी के
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org