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नवयुग निर्माता
तात्पर्य कि जैसे तुमलोग मूर्ति के उपासकों को पत्थर पूजक कहते हो वैसे ही वे लोग तुमको चमड़ा पूजक कहने का अधिकार रखते हैं । कारण कि तुम लोग गुरुओं को मानते हो उनके शरीर की सेवा करते हो, वह शरीर चमड़े के बने हुए एक ढांचे के सिवा और क्या है ? इस चमड़े के जड़ शरीर की सेवा पूजा से ही गुरुजनों की प्रसन्नता मानने वाले, प्रभु प्रतिमा के द्वारा वीतराग देव की उपासना करने वाले भक्तजनों को किस मुंह से पत्थर पूजक कहने का साहस कर सकते हैं ? इसलिये जैसा कि पहले महाराज श्री ने फर्माया है कि मूर्ति पूजक मूर्ति की उपासना नहीं करते अपितु मूर्तिवाले इष्ट देव की उपासना करते हैं, मूर्ति तो उसमें केवल निमित्त है, उसके द्वारा ही उपासना सम्पन्न हो सकती है । तुम कहीं भी किसी मन्दिर में जाकर देखो वहां मूर्ति के सामने खड़े भक्त जन को-“हे देव ! हे प्रभो ! हे परमेश्वर !" कहते हुए ही सुनोगे न कि हे पत्थर, हे मूर्ति ! ऐसे कोई कहता हुआ सुनाई देगा। तात्पर्य कि जैसे शरीर के भीतर रहे हुए आत्मा को समझने के लिये शरीर एक साधन है उसी तरह मूर्ति उपासना भी उपास्य देव को समझने और जानने के लिये एक साधन विशेष है । इसी उद्देश्य से प्राचीन जैन परम्परा में मूर्ति पूजा को विशिष्ट स्थान प्राप्त हुआ एवं जैसे यह ऐतिहासिक है वैसे ही शास्त्रीय भी है । मेरी अन्तरात्मा ने तो इस सत्य को, अब पूर्ण रूप से अपना लिया है और मेरे हृदय में कोई सन्देह भी बाकी नहीं रहा।
__ श्री आत्माराम जी-विश्नचन्द जी को थापी देते हुए बोले-वाह रे वाह ! तुमतो वास्तव में ही सच्चे ब्राह्मण, और सच्चे पंडित निकले । तुम दोनों गुरु शिष्य के वार्तालाप से मुझे बहुत आनन्द आया । वस्तुतत्त्व को समझने में कुछ धैर्य और शान्ति से काम लेना चाहिये । तुमलोग जैसे २ शास्त्राभ्यास से आगे बढ़ते जाओगे वैसे २ ही तुम्हारी विवेक पूर्ण मनोवृत्ति सत्य की ओर झुकती जावेगी तुम्हारे जैसे ग्रहण शील विनीत व्यक्तियों को शास्त्राभ्यास कराने का अवसर प्राप्त होना भी मेरे लिये कम गौरव की बात नहीं है।
__इस वार्तालाप के समय पास में बैठे हुए श्री विश्नचन्द जी के लघु शिष्य हाकमराय का हृदय आनन्दोल्लास से भरा जारहा था, उसकी मुख मुद्रा की ओर दृष्टि देते हुए श्री आत्माराम जी ने कहा-कि भाई ! तुमने भी अगर कुछ पूछना है तो पूछलो, असंदिग्ध सत्य सब के लिये ग्राह्य होता है।
__ हाकमराय जी हाथ जोड़ कर सिर नमाते हुए बोले-कृपानाथ ! आज आप श्री के सदुपदेश से मुझे तो असीम लाभ हुआ है। आज के संभाषण में साधु जीवन की भौतिकता छिपी हुई प्रतीत होती है।
आप श्री के पुण्यसहवास में न जाने और किन २ अमूल्य बातों का लाभ होगा इसी विचारणा से आज मुझे असीम हर्ष होरहा है । यद्यपि किसी बात के पूछने का कोई अवकाश तो नहीं रहा फिर भी आप श्री की आज्ञा के पालन रूप एक मौलिक विचार का स्पष्टीकरण कराने की इच्छा जाग रही है ?
आप श्री ने अभी २ फर्माया था कि अपना यह ढंढक पन्थ श्रमण भगवान महावीर की गच्छ परम्परा में नहीं आना, तो कैसे ? इसका स्पष्टीकरण करने की कृपाकरें।
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