________________
मूर्ति पूजा की आनुषंगिक चर्चा
मूर्ति विरोधी कहते हैं परन्तु यदि कुछ गम्भीरता से उनके बर्ताव पर नजर डालें तो वे सब से बड़े मूर्ति पूजक प्रमाणित होते हैं ।
गुरुओं की वाणी रूप ग्रन्थ साहब को वे अपना परम गुरु मानते हैं अच्छे २ रेशमी रुमालों में लपेट कर उसे ऊंचे स्थान पर धरते हैं, उसके आगे मत्था टेकते और चमर दुलाते हैं। केवल कागज और स्याही की बनी हुई इस विशाल पुस्तक रूप मूर्ति का इतना सम्मान करते हुए भी सिक्ख यदि अपने आपको मूर्ति का निषेधक कहें तो इस से अधिक उपहास्य जनक और क्या बात हो सकती है । वास्तव में देखाजाय तो कोई भी व्यक्ति मूर्ति की पूजा नहीं करता किन्तु आदर्श की उपासना करता है, मूर्ति उस आदर्श की प्रतीक मात्र है । इसलिए हर एक सिद्धान्त पर विवेकपूर्ण दृष्टि से विचार करने की आवश्यकता है।
चम्पालाल - अपने गुरु श्री विश्नचन्द जी को सम्बोधित करते हुए कहिये गुरुदेव ! आपने भी तो महाराज श्री के विचारों को सुना है, आपकी क्या सम्मति है ? मुझे तो इस विषय में अब किसी प्रकार का सन्देह नहीं रहा । एवं "पवित्र हाथों से किसी शास्त्र को नहीं छूना" आपके इस उपदेश का रहस्य भी अव समझ में आया ।
६३
विश्नचन्द जी - भाई मैं तो उसीदिन आपके आशय को समझ गया था जब आपने अपवित्र हाथों से पुस्तक के स्पर्श करने का निषेध किया था और रथयात्रा के सम्बन्ध में तुम्हारे अपशब्दों की भर्त्सना की थी । इसके अतिरिक्त तुम्हारे साथ होने वाले विचार विनिमय से तो मुझे यह निश्चय ही नहीं किन्तु दृढ विश्वास होगया है कि मूर्ति पूजा यह पत्थर की पूजा नहीं अपितु देव पूजा है जिसका और किसी समयपर शास्त्रीय स्पष्टीकरण करने का वचन भी गुरुदेव ने दे रक्खा है ।
चम्पालाल जी - गुरुदेव ! क्षमा कीजिये आपसे भी बात पूछे बिना नहीं रहा जाता । आप, मैं और अपने दूसरे साधु जब कभी मूर्ति पूजा के विरुद्ध बोलते हुए अपने भक्तों से कहते हैं - तब यही कहते हैंपत्थर पूजे हर मिले तो मैं पूजां पहाड़ । इससे तो चक्की भली, जो पीस खाय संसार ॥
इसका क्या मतलब ?
विश्नचन्द जी - भाई ! यह कोई शास्त्र वाक्य तो नहीं, यह तो मूर्ति पूजा से विरोध रखने वाले लोगों की मनघडंत कविता है ! ऐसी २ कवितायें तो जब चाहो बनालो। इसके उत्तर में मूर्ति उपासक भी एक ऐसी ही कविता बनाकर बोल देंगे जैसे
Jain Education International
चमड़ा पूजे हर मिले तो मैं पूजूँ चमार । इससे तो जूती भली, जो पहन फिरे संसार ॥
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org