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सत्य प्ररूपणा की ओर
हैं। आजकल के कुछ खंडेरवाल भावड़े जो हमारे इस ढूंढक मत के अनुयायी बन गये हैं वे इस पंथ के तुम्हारे जैसे मूर्ति निन्दक साधुओं के विशेष संसर्ग में आने के कारण मूर्तिपूजा के विरोधी होते हुए भी लग्नादि प्रसंग में सम्वत्सरी के एक दिन पहले रोट बनाते और प्रतिमा का पूजन करते हैं । अगर यह बात ठीक है तो तुम्ही बतलाओ कि तुम्हारे विचारानुसार वे खंडेरवाल भाई जड़पूजक हैं या चैतन्योपासक ? वास्तव में मूर्ति पूजा क्या वस्तु है और उसकी उपासना का क्या उद्देश्य है इस परमार्थ को अपने लोगों ने अभीतक समझा ही नहीं और नाही समझने की कोशिश ही की है, केवल विना परमार्थ के समझे लकीर के फकीर बन रहे हैं और प्रभु पूजकों को पत्थर पूजक कहकर अपनी दुराग्रह-प्रसित संकुचित्त-मनोवृत्ति का परिचय देरहे हैं । संसार में जितने भी सम्प्रदाय मूर्ति की उपासना करते हैं वास्तव में वे जड़मूर्ति के उपासक नहीं किन्तु मूर्ति वाले इष्टदेव के उपासक हैं । संक्षेप में कहें तो कोई भी व्यक्ति मूर्ति की पूजा नहीं करता अपितु मूर्ति के द्वारा मूर्ति वाले श्रादर्श की पूजा करता है । इसलिये बिना सोच विचार किये यूंही मुख से कुछ बोल देना कितना मूल्य रखता है इसका तुम स्वयं ही अनुमान करो ?
चम्पालाल-महाराज ! है तो धृष्ता पर कहे बिना नहीं रहा जाता ! पहले तो आपने कभी ऐसी बात कही नहीं, अब आगरे से वापिस आनेपर ही आप यह सब कुछ फर्मा रहे हैं, क्षमा कीजिये, मुझे तो यह सब महाराज रत्नचन्द जी की संगति का फल प्रतीत होता है जो कि "ढीले पस्थे” सुने जाते हैं।
___ आत्माराम जी-निस्सन्देह यही बात है, मैंने आगरे में मुनि श्री रत्नचन्द जी महाराज के शास्त्रीय ज्ञानालोक से अपने को आलोकित करने का सद्भाग्य प्राप्त किया है। उनके चरणों में बैठकर प्राचीन भाष्य और टीका आदि के साथ निर्ग्रन्थ प्रवचन अर्थात् जैनागमों का सतत चिन्तन और मनन करने का जो अवसर प्राप्त हुआ वही मेरे साधु जीवन के इतिहास में उल्लेखनीय बहूमूल्य वस्तु है । इस पुण्य अवसर में मुझे जैन धर्म सम्बन्धी जो सत्य उपलब्ध हुआ है उसी के अनुसार जीवन का निर्माण करना तथा उस अबाधित सत्य की प्ररूपणा करना, मैंने अपने शेष जीवन का कर्तव्य निश्चित किया है। और महाराज श्रीरत्नचन्द जी जैसी विशिष्ट जैन विभूति को-“ढीले पास्थे" कहने का साहस तो तुम्हारे जैसे "ज्ञान लब दुर्विदग्ध" ही कर सकते हैं न कि कोई विशेषज्ञ भी । तथा विशुद्ध प्राचीन जैन परम्परा में मूर्ति उपासना का क्या स्थान है एवं जैनागमों में उसका कैसा समर्थन है इस विषय की पर्यालोचना कभी फिर-अनुकूल समय आने पर की जावेगी।
___ चम्पालाल-महाराज ! वास्तव में ही मुझसे गुरुजनों की महती अवज्ञा हुई है। इस गुरुतर अपराध के लिये आप श्री मुझे जो प्रायश्चित दें उसे मैं स्वीकार करने को तैयार हूँ ? परन्तु क्या करू? जब से मैं इस पंथ में दीक्षित हुआ हूँ, अपने साथियों से मूर्ति पूजा और उसके पुजारियों की निन्दा ही सुनता आया हूँ, वही संस्कार मेरे हृदय में घर कर गये हैं । इन्हीं संस्कारों का यह प्रभाव है कि आप जैसे विशिष्टज्ञान सम्पन्न गुरुजनों के सामने इस प्रकार की असाधुजनोचित भाषा का व्यवहार किया है।
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