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सत्य प्ररूपणा की ओर
की द्विज संज्ञा का तात्पर्य भी इसी में निहित जान पड़ता है । इसके अतिरिक्त वैदिक परम्परा में ब्राह्मण क्षत्रिय और वैश्य को क्रमशः मुख, बाहु और जानु या उदर के नाम से अभिहित किया है। तो जैसे मुख बाहु और जंघा ये तीनों ही संमिलित रूप से शरीर की रक्षा करते उसे पुष्टि और प्रगति देते हैं, वैसे ही कर्तव्य निष्ठा को ध्यान में रखती हुई हमारी यह त्रिपुटी अपने आसनोपकारी वीर प्रभु के शासन की सच्ची प्रभावना करने, उसे पुष्टि देने और प्रगति में लाने का श्रेय प्राप्त न कर सकेगी ? मुझे तो विश्वास ही नहीं किन्तु दृढ़ निश्चय है कि हम इसमें अवश्य सफल मनोरथ होंगे। मुझे तो वह दिन अधिक दूर दिखाई नही देता जब कि सैंकड़ों नहीं बल्कि हजारों भूले भटके प्राणी श्रमण भगवान् महावीर की विशुद्ध परम्परा में दीक्षित होकर सत्य सनातन जैन धर्म की विजय वैजयंती को इसी पंजाब भूमि में फिर प्रतिष्टित करने का श्रेय उपार्जित करेंगे। और पंजाब प्रान्त से गई हुई जैन श्री को फिर से लाकर उसके अनुरूप उच्च सिंहासन पर आरूढ़ करके धर्म-निष्ट मानवोचित गौरव प्राप्त करेंगे । यह सब कुछ सत्य को आभारी होगा, उसी के बल पर कर्तव्य परायण होकर मैं इस कार्य क्षेत्र में उतरा हूँ परन्तु अभी गुप्त रूप में । प्रत्यक्ष के लिये तो कुछ समय लगेगा ।
विश्नचन्दजी - गुरुदेव ! आज आपने हम लोगों को जो सन्मार्ग दिखाया है, उसके लिये हम आपके आजन्म कृतज्ञ रहेंगे | आपने हमारे पर जो कृपा की है उसका कथन हमारो वचन शक्ति से बाहर है, आप स्वयं सबकुछ हैं, आपकी विशिष्ट ज्ञान शक्ति, वीरोचित साहस और अनुपम चारित्र निष्टा आदि सदगुणों के विशिष्ट प्रभाव से ही सर्व अभी सिद्ध होगा, हमारा साहाय्य तो बिलकुल निगण्यसा है, यह आप श्री की हम पर असीम कृपा है जो हमें सहायक समझ रहे हैं ।
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चम्पालालजी - ( कुछ उम्र शब्दों में ) यदि ऐसा ही है तो इस झूटे प्रपंच में फंसे रहने का क्या मतलब ? गुरुदेव !
आत्मारामजी - समय की प्रतीक्षा करो ! अनुकूल समय आने पर सब कुछ ठीक हो जावेगा समय की अनुकूलता और प्रतिकूलता पर ही सफलता और विफलता निर्भर करती है। अभी तो तुम्हें और बहुत कुछ सोचना समझना है । पहले अपने ज्ञानाभ्यास को परिपक्क करो, और वस्तु स्थिति का सम्यक् पर्यालोचन करो । इतनी शीघ्रता करने की आवश्यकता नहीं, हर एक विषय पर ठंडे मन से विचार करने की आवश्यकता है । इसलिये आज तो तुम दया पालो कल के स्वाध्याय में फिर विचार किया जावेगा ।
महाराज श्री आत्मारामजी के इन वचनों को सुनकर प्रसन्न चित दोनों गुरु शिष्य वन्दना करके वहां से विदा हुए और मन ही मन में आपकी साधु गुण सन्तति की प्रशंसा करते हुए अपने उपाश्रय में पहुंच गये ।
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