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अपने को वीर भगवान की साधु परम्परा तो और क्या है ।
नवयुग निर्माता
'अनुगामी कहें व मानें तो यह एक प्रकार की धृष्टता नहीं
महाराज श्री आत्मारामजी के उक्त कथन का श्री चम्पालाल जी के ऊपर बहुत प्रभाव पडा । वे अपने गुरु श्री विश्नचन्दजी से बोले - गुरुदेव ! हम तो श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के शासन की अविच्छिन्न परम्परा समझकर इस मत में दीक्षित हुए हैं लौंका या लवजी की परम्परा समझकर नहीं । इसलिये आप अब इसका अच्छी तरह से निर्णय कर लेवें । जो बात सत्य प्रमाणित हो उसे स्वीकार करना चाहिये और उसीके अनुसार ही वर्तन करना चाहिये। हम तो सर्वज्ञ भाषित धर्म के अनुयायी हैं और रहेंगे, यदि वास्तव में हमारा यह पंथ सर्वज्ञ भाषित धर्म का प्रतिनिधित्व नहीं करता तो हमारा इसको दूर से नमस्कार । जो पंथ लगभग दो
ढाई सौ वर्ष से किसी अमुक छद्मस्थ पुरुष का चलाया हुआ प्रमाणित हो एवं जिसके प्रवर्तक या जन्मदाता अमुक गृहस्थ या यति हों उसे सर्वज्ञ भाषित धर्म समझ कर उसमें किसी अमुक ममत्व के कारण टिके रहना क्या मूर्खता की पराकाष्ठा नहीं ? कुछ क्षरण चुप रहकर चम्पालालजी फिर बोले – क्या महाराज ! सचमुच ही हमारे इस ढूंढक पंथ का श्रमण भगवान् महावीर की परंपरा से प्रत्यक्ष कोई सम्बन्ध नहीं ?
आत्मारामजी - नहीं बिलकुल नहीं, यदि होता तो वीर भगवान् की गच्छ परम्परा में इसका किसी न किसी प्रकार से निर्देश अवश्य होता ।
चम्पालालजी - तो क्या अपने पंथ के बड़ों ने जो पट्टावली लिखी है वह झूठी है ?
आत्मारामजी - बिलकुल झूठी और मन घडंत है । उसकी सत्यता के लिये एक भी शास्त्रीय या ऐतिहासिक प्रमाण नहीं | फिर इसे किस प्रमाण के आधार पर सत्य माना जाय ।
चम्पालालजी - तो क्या आज तक हम लोग अंधेरे में ही भटकते फिरते रहे ?
आत्मारामजी - बेशक! अन्धेरे में भटकते ही नहीं रहे बल्कि इस अन्धकार को प्रकाश का ही रूप समझते और मानते रहे। आज से कुछ समय पहले मैं भी इस अन्धकार बहुल पन्थ को उज्वल प्रकाश दाता
मनेकी निवड़ भूल करता रहा परन्तु जब मैंने कुछ पढ़ लिख कर निर्ग्रन्थ प्रवचन का पंचांगी सहित अभ्यास किया और मुनि श्री रत्नचन्दजी जैसे उदार-वृत्ति के विद्वान साधुओं के पुण्य सहवास में आने का सौभाग्य प्राप्त हुआ तब मेरी आंखें खुली तब मुझे इस पन्थ के वास्तविक स्वरूप का भान हुआ । इस समय मेरा वेष तो बेशक ढूंढक पन्थ का है परन्तु हृदय मेरा सर्वज्ञ भाषित सत्य सनातन धर्म का ही एकमात्र पुजारी बना हुआ है । और इसी सत्य धर्म की प्ररूपणा में अपने शेष जीवन को लगाने की प्रतिज्ञा करके मैंने आरे से प्रस्थान किया है। यह सुनकर चम्पालालजी अभी कुछ बोलने को ही थे कि आपने फिर कहा- भाई चम्पालाल ! तेरा गुरु- विश्नचन्द ब्राह्मण, मैं क्षत्रिय और तू वैश्य है । हम तीनों का ही पवित्र और प्रतिष्ठित कुल में जन्म हुआ है । लौकिक व्यवहार में ये तीनों एक दूसरे के सहयोगी अथच सहायक हैं, और वैदिक परिभाषा में इन तीनों
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