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________________ सत्य प्ररूपणा की ओर ५७ श्री आत्मारामजी-कोई भी नहीं । गम्भीरता भरे शब्दों में यह उत्तर दिया । चम्पालालजी-(ज़रा उत्तेजित होकर) तो क्या हमारा यह पंथ संमूर्छिम है ? श्री आत्मारामजी-(सहज हास्योक्ति में) ऐसा ही समझलो ? श्री विश्नचन्दजी-महाराज ! हम जिज्ञासु हैं जिज्ञासाबुद्धि से पूछ रहे हैं इसमें जो तत्थ्य हो उसे आप स्पष्ट शब्दों में कहने की कृपा करें। श्री आत्मारामजी-गुरु शिष्य दोनों को सम्बोधिक करते हुए बोले-भाई ! वस्तुस्थिति तो यह है कि अपने इस ढूंढक मत का श्रमण भगवान महावीर की उक्त गच्छ परम्परा से कोई सम्बन्ध नहीं । हम लोग अपनी गच्छ परम्परा को जिस पट्टावली के आधार पर भगवान महावीर स्वामी के साथ जोड़ रहे हैं वह बिलकुल बनावटी,मनः कल्पित और झूठी है। उसमें प्रामाणिकता और ऐतिहासिकता का लेशमात्र भी अंश दिखाई नहीं देता। चम्पालालजी-तो हमारे इस पंथ का प्रादुर्भाव कब और कैसे हुआ ? श्री आत्मारामजी-हमारे इस मत के मूल पुरुष तो लौंकाशाह नाम के एक श्रीमाली गृहस्थ की शिष्य परम्परा में होने वाले 'लवजी' नामा एक यति हैं । आप सब उसी की परम्परा में आते हैं । अपने सब प्रतिक्रमण के अनन्तर यही तो बोलते हैं कि-"प्रथम साध लवजी भया" फिर अपने इस पंथ का मूल पुरुष लवजी है, इसमें शंका की कौनसी बात रहजाती है । लवजी सूरत के रहने वाला दशा श्रीमाली वणिक था, उसने लौंका गच्छ की परम्परा के बजरंग यति के पास दीक्षा ग्रहण की। कुछ दिनों बाद किसी बात पर झगड़ा हो जाने के कारण वह अपने गुरुजी से अलग होकर विचरने लगा और मुखपर मुंहपत्ति वान्धली। कुछ दिनों के अनन्तर उसके साथ दो चार व्यक्ति और पा मिले । जैन परम्परा के साधु वेष से भिन्न प्रकार का वेष देखकर जब किसी गृहस्थ ने उन्हें रहने के लिये स्थान न दिया तो लवजी एक टूटे हुए मकान में रहने लगा। गुजरात काठियावाड़ में टूटे फूटे मकान को ढुंढ कहते हैं । ऐसे मकान में रहने के कारण लोग उसे ढूंढिया कहने लगे । उसी लवजी की परंपरा में होने से हमें भी लोग ढुंढिया कहते और हमारे पंथ को ढुंढक पंथ के नाम से पुकारते हैं । लौंका गच्छ का मूल पुरुष लोंका शाह नाम का एक वणिक गृहस्थ था उसी ने जैन परंपरा में सब से प्रथम मूर्ति उपासना का विरोध किया। इससे प्रथम जैन परम्परा में किसी ने भी मूर्तिपूजा के विरोध में कुछ नहीं कहा । इस विषय के सम्बन्ध में अधिक प्रकाश किसी और दिन में डाला जावेगा । तात्पर्य कि हमारे ढंढक मत के आद्य-आचार्य लवजी हैं न कि श्रमण भगवान महावीर । उनका तो हम लोग केवल नाम मात्र रटते हैं। और वास्तव में देखा जाय तो निम्रन्थ प्रवचन के नाम से विख्यात उनकी द्वादशांगी वाणी में साधु का जो वेष वर्णन किया है उससे हमारा यह साधु वेप बिलकुल विपरीत है। इस पर भी हम लोग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003203
Book TitleNavyuga Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayvallabhsuri
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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