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________________ ५६ नवयुग निर्माता हैं, आपके समक्ष कुछ भी बोलने का हममें साहस नहीं, बड़े संकोच से केवल इतना ही अर्ज करते हैं कि आप जो कुछ भी फरमायेंगे उसे हम बड़ी श्रद्धा पूर्वक सुनेंगे और उसे अपने हृदय में पूरा २ स्थान देने का प्रयत्न करेंगे। हमारे किसी पूर्वभव के पुण्यकर्म का ही यह शुभोदय है कि आप जैसे चारित्रशील विशिष्टज्ञानवान का हमें सहयोग प्राप्त हुआ है। ____ इतना वार्तालाप होने के बाद प्रतिदिन निरन्तर पठन पाठन चलने लगा। एक दिन स्थानांग सूत्र का स्वाध्याय कराते समय उसके निम्नलिखित पाठ पर बड़ी मनोरंजक चर्चा हुई जिसका विवरण इस प्रकार है "समणस्स भगवत्रो महावीरस्स णवगणा होत्था तं जहा-१ गोदासेगणे २ उत्तरयलिस्स गणे ३ उद्देहगणे ४ चारणगणे ५ उद्दवाडियगणे ६ विस्सवाडियगणे ७ कामढ़ियगणे ८ माणवगणे ह कोडि यगणे" [स्था० ३३.६ ठा० सू० ६८०] भावार्थ-श्रमण भगवान महावीर स्वामी के नव गण हुए यथा १ गोदासगण २ उत्तर वलिस्सगण ३ उद्द हगण ४ चारणगण ५ उद्दवाडियगण ६ विस्सवाड़ियगण ७ कामढ़ियगण ८ माणवगण और ६ कोटिक-गण। स्थानांग सूत्र के उपर्यक्तपाठ के अर्थ का ध्यान पूर्वक पर्यालोचन करते हुए श्री चम्पालाल जी अपने गुरु श्री विश्नचन्द जी से बोले कि महाराज ! इस सूत्र पाठ में श्रमण भगवान महावीर के नौ गच्छों का उल्लेख किया है, परन्तु अपने जिस गच्छ के कहे व माने जाते हैं उसकी तो इसमें गन्ध तक भी नहीं है ? तब अपने सम्प्रदाय की गच्छ सम्बन्धी मान्यता को शास्त्रीय समझना या कि शास्त्रविरुद्ध मनःकल्पित ? __ श्री विश्नचन्दजी-भाई ! परसों मैंने भी इस पाठ को देखा था इसके अर्थ की ओर ध्यान देते हुए मुझे भी यही सन्देह हुआ था, जिसका तुमने अभी जिकर किया है । इस पाठ से तो अपनी परम्परा भगवान महावीर की परम्परा से अलग ही प्रतीत होती है। परन्तु इस बात का यथार्थ निर्णय तो महाराज श्री आत्मारामजी के पास चलकर ही हो सकेगा। कारण कि उनके समान छान बीन करने वाला इस समय हमारे पंथ में दूसरा कोई मुनिराज नहीं है । चलो उन्हीं के पास चलकर इस बात का निश्चय करें। आहा ! सत्संग का कितना मीठा परिणाम ? जिस पाठ को चम्पालाल और विश्नचन्दजी ने इससे पहले कईबार देखा पढ़ा और सुना परन्तु उसके रहस्य पूर्ण परमार्थ की ओर कभी ध्यान नहीं गया । जब से इन्हें श्री आत्मारामजी के पुण्य सहवास का सद्भाग्य प्राप्त हुआ तब से इनकी मलिन मनोवृत्ति में भी प्रकाश की रेखा का उद्गम होने लगा। सत्संग की कितनी महिमा ? तभी तो कहा है “सतां संगोहि भेषजम् ।” दोनों गुरु शिष्य उक्त विषय के निर्णयार्थ श्री आत्मारामजी के पास पहुंचे । सविधि वन्दना के अनन्तर महाराज ! ठाणांगसूत्र में श्रमण भगवान महावीर स्वामी के जो नौ गच्छ कहे हैं उनमें से अपना गन्छ कौनसा है ? चम्पालाल जी ने सहज नम्रता से पूछा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003203
Book TitleNavyuga Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayvallabhsuri
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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