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अध्याय ७
सत्य-प्ररूपणा की ओर
श्रागरे से विहार करके ग्रामानुग्राम विचरते और धर्मोपदेश देते हुए श्री आत्मारामजी देहली पहुँचे । इस समय आपका वेष तो ढंढक पंथ का ही था परन्तु मानस आपका सर्वेसर्वा विशुद्ध जैन धर्म का अनुगामी बन चुका था।
शास्त्रीय दृष्टि और तटस्थ मनोवृत्ति से अवगत किये हुए सत्य की प्ररूपणा का संकल्प करके ही आपने श्रागरे से प्रस्थान किया था।
देहली में पधारने के बाद पूज्य अमरसिंहजी के शिष्य श्री विश्नचन्द और चम्पालालजी आदि कई एक साधुओं ने सप्रेम आपसे भेट की और सविनय प्रार्थना की-कि महाराज! आपने आगरे में श्रीरत्नचन्दजी महाराज के पास रहकर जो अपूर्व ज्ञान प्राप्त किया है उसमें से कुछ हम लोगों को भी प्रदान करने की कृपा करें।
आत्मारामजी–भाइयो ! तुम्हारी सप्रेम प्रार्थना का तो मैं स्वागत करता हूँ परन्तु तुम्हारे आचार विचार का मेरे आचार विचार से अब मेल नहीं खायगा । यह सुनकर आश्चर्य चकित होते हुए श्री विश्नचन्दजी ने कहा कि महाराज ! श्राज से पहले तो आपने हम लोगों से ऐसी जुदायगी की कभी कोई बात नहीं कही, आज आप ऐसे क्यों फरमा रहे हो ?
आत्मारामजी-सुनो ! पहले मेरे जो विचार थे उनको मैंने अपने मनमें ही रक्खा, किसी के आगे प्रकट नहीं किया, परन्तु अब मुनि श्री रत्नचन्दजी के सहवास में रहकर तटस्थ मनोवृत्ति से किये गये शास्त्राभ्यास से प्राप्त हुए यथार्थ बोध के कारण सत्य की प्ररूपणा करने में अब मैं स्वतंत्र एवं निर्भय होगया हूँ। इसलिये अब मुझे शास्त्रीय दृष्टि से प्राप्त हुए सत्य को व्यक्त करने में किसी प्रकार का भी संकोच नहीं है।
और यदि तुमने मेरे से पढ़ना है तो आज से प्रथम इस बात का प्रण" करो कि "हम अपवित्र हाथों से शास्त्र का स्पर्श नहीं करेंगे” तात्पर्य कि अपनी चिरकाल की पडी हुई आदत के अनुसार मात्रा से अशुद्ध हुए हाथ से
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