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नवयुग निर्माता
श्री आत्मारामजी ने चिरकाल से मनमें बसे हुए साम्प्रदायिक संस्कारों को आत्मप्रगति के प्रतिकूल समझते हुए उन्हें अपनाने की अपेक्षा त्याग देना ही उचित समझा और शास्त्रीय दृष्टि से जो सत्य उन्हें भान हुआ उसको ही जीवन का संगी बनाने का उन्होंने दृढ़ संकल्प किया । और श्री रत्नचन्दजी के चलते समय कहे हुए सुनहरी वचनों-["तुमने आज से लेकर जिनप्रतिमा की कभी निन्दा नहीं करनी, अपवित्र हाथों से कभी शास्त्र को स्पर्श नहीं करना, और अपने पास सदा दंडा रखना"] को हृदय प्रदेश पर अंकित करते हुए गुरुजी के प्रबल अनुरोध से इच्छा न रहते हुए भी आगरे से पंजाब की ओर प्रस्थान किया।
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