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अध्याय ६
मानसिक परिवर्तन
आगरे का चातुर्मास श्री आत्मारामजी के लिये जीनव में एक नये अध्याय का प्रारम्भिक प्रमाणित हुआ। मुनि श्री रत्नचन्दजी के सम्पर्क में आने के बाद निरन्तर किये गये शास्त्रीय पर्यालोचन से उनके विवेक चक्षु उघड़े और वस्तु-तत्त्व के यथार्थ-स्वरूप का उन्हें स्पष्ट भान होने लगा। यद्यपि श्री आत्मारामजी को इससे पूर्व ही आगमों के विशिष्ट अभ्यास और उनपर लिखीगई भद्रबाहुस्वामी जैसे चतुर्दश पूर्वधारी की नियुक्ति एवं पूर्वाचार्यों की चूर्णि, भाष्य और टीकाओं के सम्यक् पर्यालोचन से यह निश्चय हो चुका था कि मैं जिस मत में दीक्षित हुआ हूँ उसका प्राचीन श्वेताम्बर जैन परम्परा अथवा वीर परम्परा से शास्त्रीय दृष्टि के अनुसार प्रत्यक्ष या परोक्षरूप से कोई भी मेल नहीं खाता । इसलिये प्राचीन जैन परम्परा का वास्तविक प्रतिनिधित्व करने वाली कोई दूसरी साधु संस्था है या होनी चाहिये । जिसकी वेष भूषा और आचार विचार प्राचीन श्वेताम्बर जैन परम्परा के अनुसार हो । फिर भी आपने अपने इन विचारों को तबतक अन्तिम स्वरूप नहीं दिया जब तक कि अपनी सम्प्रदाय के एक विशिष्ट विद्वान से इस सम्बन्ध में तटस्थ मनोवृत्ति से पूरा पूरा निर्णय नहीं कर लिया। मुनि श्री रत्नचन्दजी के पुण्य सहवास में प्राप्त हुए सद्बोध से श्री आत्मारामजी का मानस हंस ढूंढक पंथ या स्थानकवासी सम्प्रदाय के कीचपूर्ण जलाशय की उपासना से पराङ्मुख होकर प्राचीन शुद्ध सनातन जैन परम्परा के निर्मल मानसरोवर में रमण करने लगा और उसी की सतत उपासना में आत्महित का सुखद स्वप्न देखने लगा।
यद्यपि साम्प्रदायिक वातावरण में उछरे और पुष्ट हुए मानस को एकदम बदलना चिरकाल से बहते हुए नदी के प्रवाह को बदलने के समान अत्यन्त कठिन तो होता है, परन्तु अशक्य नहीं होता, सत्यगवेषक धीर पुरुष के लिये यह इतना कठिन नहीं जितना कि साम्प्रदायिक मोह से व्याप्त मानस वाले किसी दुर्बलात्मा के लिये है।
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