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________________ ५५ नवयुग निर्माता पुस्तक का स्पर्श न करना स्वीकार करोगे तब मैं तुम लोगों को पढ़ाना स्वीकार करूगा अन्यथा नहीं। आपकी इस बात को सुनकर विश्नचन्दजी आदि सब साधु चुप करगये किसी ने कोई उत्तर नहीं दिया तब आपने फिर कहा-कि तुम लोग अपने स्थान पर जाकर मेरी इस सूचना पर शान्ति से विचार करो, तुम्हारे को यदि उचित लगे और उसके आचरण करने में तुम्हारे मन में किसी प्रकार का संकोच न हो तो खुशी से पढ़ने के लिये आजाओ, मैं बड़ी प्रसन्नता से तुम्हारे को पढ़ाऊंगा। ___ श्री आत्मारामजी के उक्त कथन को सुनकर वन्दना करके सब साधु अपने स्थान-उपाश्रय में चले गये, वहां जाकर श्री आत्मारामजी के कथन को ध्यान में लेते हुए विश्नचन्दजी मन में सोचने लगे-कि आत्मारामजी की श्रद्धा तो अब निस्सन्देह बदली हुई प्रतीत होती है । अब आत्मारामजी वोह नहीं जो कुछ समय पहले थे, ऊपर से तो भले पहले जैसे ही दिखाई देते हैं परन्तु अन्दर से तो न मालूम कितने बदल गये हैं । मगर हमको तो पढ़ना है, ऐसे उदार मन के पढ़ाने वाले मिलने बहुत कठिन हैं । अपने मन के उक्त विचार जब विश्नचन्दजी ने चम्पालालजी आदि साधुओं से कह सुनाये तब चम्पालालजी बोले-इसमें अधिक ऊहापोह करने की क्या आवश्यकता है ये हम से अधिक ज्ञानवान हैं और हमने इनसे ज्ञान प्राप्त करना है तो फिर ये जैसी आज्ञा करें उसे शिरोधार्य करना चाहिये । अब रही श्रद्धा की बात सो उसका भी धीरे धीरे सब भेद खुल जायगा । और जब हम उनको अपनी अपेक्षा हर एक बात में अधिक समझते हैं एवं उनके पास से ज्ञान प्राप्त करने की इच्छा रखते हैं तो उनके विषय में किसी प्रकार का सन्देह करना भी उचित प्रतीत नहीं होता। इसलिये वे जो कुछ फरमावें उसपर ठंडे दिल से विचार करना चाहिये और यदि वह मन में उतरे तो उसे अपनाने में भी संकोच नहीं करना चाहिये । चम्पालाल जी के इस संभाषण से विश्नचन्द जी के मनको प्रोत्साहन मिला और दोनों एक दूसरे से सहमत हो गये । दूसरे दिन दोनों श्री आत्माराम जी के पास आये और सविधि बन्दना करके बोले-महाराज ! आप श्री की आज्ञा शिरोधार्य है हम आज से लेकर अपने अपवित्र हाथ शास्त्र को नहीं लगायें गे । आप कृपा, करके हमारा पठन पाठन प्रारम्भ करावें आप श्री के चरणों में रहकर ज्ञानाभ्यास करने की हमारी तीव्र इच्छा है। ___ श्री विश्नचन्द और चम्पालाल जी की बात को सुनकर आत्माराम जी मन में-"ये दोनों व्यक्ति सरल स्वभावी अतएव तरणहार प्रतीत होते हैं और विनीत भी हैं, यदि पठन पाठन करते कराते इनके भी विवेक चच उघड़ आवें, और मेरी तरह इनकी श्रद्धा में भी निर्मलता आजावे तो अधिकांश लाभ की ही संभावना है। ऐसा विचार करने के अनन्तर बोले-अच्छा भाई तुम पढ़ो और पढ़ते समय किसी प्रकार की शंका या सन्देह हो तो उसके पूछने में किसीप्रकार का संकोच नहीं करना । हम लोगों ने आत्म-कल्याण के लिये गृहस्थपने को त्यागकर साधु-धर्म को अंगीकार किया है । वीतरागदेव के धर्म में बतलाये गये अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह इन पांचों महाब्रतों का सम्यग् अनुष्ठान ही साधु जीवन का मौलिक आदर्श है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003203
Book TitleNavyuga Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayvallabhsuri
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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