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सन्त रत्न के समागम में
श्री रत्नचन्दजी - कहो भाई क्या बात है ? कहने में संकोच क्यों ? जब दोनों ओर से मनमें किसी प्रकार का अन्तर नहीं तो फिर उसे व्यक्त करने में हिचकचाहट कैसी ? कहो खुशी से कहो ।
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आत्मारामजी - महाराज ! आपके समान जैनागमों का जानकार - जैनधर्म के वास्तविक स्वरूप का मर्मज्ञ और उसपर सच्ची आस्था रखने वाला उदार मनोवृत्ति का साधु पुरुष कोई विरला ही होगा । परन्तु मुझे आश्चर्य इस बात का है कि आप इतने जानकार और विचारशील होते हुए भी इस पंथ में - [ जिसका सारा ही आचार व्यवहार शास्त्रबाह्य अथच कल्पना प्रसूत है ] आज तक कैसे और क्यों फंसे बैठे रहे ? अपनी अन्तरंग कन्दर ही अन्दर कैसे सुरक्षित रक्खे रहे ? आपकी गंभीरता तो निस्सन्देह प्रशंसनीय है मगर सत्य बात की प्ररूपणा भी तो साधुपुरुषों के शास्त्रविहित कर्तव्यों में से एक है ?
श्री रत्नचन्दजी-भाई ! तुम्हारा कहना तो यथार्थ है, मैं अन्दर से तो सब कुछ जानता और मानता हूँ. और यह भी सत्य है कि मुझे जो कुछ शास्त्र द्वारा सत्य प्रतीत हुआ उसे प्रत्यक्ष रूप में प्रकट करना चाहिये था, परन्तु क्या करू ं? अब वृद्ध हो गया हूँ आयु का बहुत सा भाग व्यतीत हो चुका है-थोड़ा सा बाकी रह गया है, अब बाकी रही थोड़ी सी आयु में जनता को -[ जिसका अधिक भाग अबोध पूर्ण है ] चर्चा का समय देना भी मुझे कुछ उचित प्रतीत नहीं होता, और फिर आत्मा का उद्धार तो अपनी अन्तरंग शुद्ध भावना पर ही निर्भर करता है जिसे कि मैं बनते सुधी अपना रहा हूँ । हां यदि तुम्हारे जैसा सत्यप्रिय शक्तिशाली और निर्भय व्यक्ति आज से दश बीस वर्ष पहले कोई सहायक रूप में मिल जाता तो सम्भव था कि रत्नचन्द इस रूप में तुमको दिखाई न भी देता जिस रूप में तुम उसे आज देख रहे हो । अब तो मैं इतने में ही सन्तोष मान रहा हूँ कि मेरी अन्तरंग श्रद्धा सुरक्षित है । और तुम्हारे जैसे अधिकारी पुरुष के सन्मुख उसे व्यक्त करने में किसी प्रकार का संकोच नहीं होता ।
आत्मारामजी - अच्छा महाराज ! “गई सो गई अब राख रही को" इस कहावत के अनुसार यदि अब भी आप तैयार हों तो मैं हर प्रकार से आपकी सेवा करने को कटिबद्ध हूँ ।
श्री रत्नचन्दजी - भाई ! तुमपर मुझे पूरा विश्वास है और तुम जो कुछ कहते हो उसे अवश्य पूरा करोगे परन्तु पहले तुम अपने आपको तो टटोलकर देखो तुम इस वक्त कितने तैयार हो ?
आत्मारामजी महाराज ! यह तो भविष्य बतलायेगा, पता नहीं ज्ञानी ने क्या देखा है ? मगर अब तो मैं भी अपने को पूर्ण रूप से तैयार नहीं देखता, हां यदि आपश्री का आशीर्वाद मेरे साथ रहा तो मैं एक न एकदिन उस मार्ग का मूर्तरूप में अवश्य अनुसरण करने का सफल प्रयास करूंगा ।
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श्रीरत्नचन्दजी- -- बस यही मैं चाहता हूँ- मेरा आशीर्वाद तुम्हारे साथ है और तुम निर्भय होकर जैन धर्म की वास्तविक स्वरूप में प्ररूपणा करनेका श्रेय प्राप्त करो यही मेरी सदिच्छा है । और वास्तव में मैंने इसी
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