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________________ ३८ नवयुग निर्माता श्रीरत्नचन्दजी - भाई ! अब मुझे पता चला कि तुम पूरे अभ्यासी और तत्थ्य की खोज करने में पूरे निपुण हो । अच्छा ! अब एक बात और सुनो - मूर्तिपूजा सम्बन्धी जितने भी आगम पाठ हैं उन सबका परमार्थ मैंने तुमको अच्छी तरह से समझा दिया है । जिनका तुमने भी पूरा २ विचार कर लिया है। सिर्फ एक रहस्य की बात अवशिष्ट रह गई है जिसकी ओर मैं तुम्हारा ध्यान खैंचना चाहता हूँ —तुम देखते हो कि सूत्रों में जहां कहीं पूर्णभद्र आदि यक्षों का वर्णन आता है वहां पर ही चैत्यशब्द का निर्देश किया है अन्यत्र “उज्जाणे, वणसंडे" इसीपाठ का उल्लेख है । इससे यह सिद्ध होता है कि जिस उद्यान में किसी यक्ष विशेष का मंदिर होता है उसी उद्यान विभाग को चैत्य के नाम निर्देश किया जाता है— यथा - "पुण्यभद्देचेइए, गुणसिलाए चेइए" इत्यादि । अब विचारो जब कि श्रमण भगवान् श्री महावीर स्वामी अपने मुखारविन्द से उन २ यक्षों की पूजा प्रभावना का परिचय दे रहे हैं और विशिष्ट ज्ञान सम्पन्न गरणधर देवों ने उसे सूत्रों में गुन्थन कर दिया है तो इससे यह तो निर्विवाद सिद्ध है कि उन मन्दिरों या चैत्यालयों में अमुक २ नाम से प्रसिद्ध यक्षदेवों की प्रतिमायें विराजमान थीं और समय २ पर उनके अधिष्ठातादेव अपना परिचय भी देते थे, जैसे कि "अंतगढ़दशा" में सुलसा के द्वारा मूर्ति की उपासना से प्रसन्न हुए हरिणेगमेषी देव ने उसके निन्दुपन को दूर कर दिया था । ऐसी अवस्था में मूर्ति को तुच्छ समझ कर उसकी निन्दा के लिये कटिबद्ध होना अपने आत्मा को दुर्गति का भाजन बनाना है - इस लिये आज से मेरी इन सारगर्भित तीन शिक्षाओं को सदा ध्यान में रखना - [१] अपवित्र हाथों से कभी किसी शास्त्र का स्पर्श नहीं करना [२] अगर किसी कारणवशात् मूर्तिपूजा का समर्थन न करसको तो उसकी निन्दा कभी नहीं करनी [३] और सदा अपने पास दण्डा रखना । आत्मारामजी - अच्छा महाराज ! आपकी आज्ञा शिरोधार्य है जहां तक बनेगा मैं उसे पालन करने का भरसक प्रयत्न करूंगा । इतना कहने के बाद वन्दना करके आप अपने स्थान को चले गये । इस प्रकार प्रतिदिन के सत्संग में श्री रत्नचन्दजी महाराज ने श्री आत्मारामजी को जितने भी विवादास्पद विषय थे उनका शास्त्रीय आधार से पूरा पूरा स्पष्टीकरण करते हुए उनका यथासमय और यथाशक्ति सदुपयोग करने का भी आदेश दिया । इस प्रकार हर तरह से प्रत्येक विषय में निःशंक हो जाने के अनन्तर एक दिन श्री आत्मारामजी से हाथ जोड़कर एक प्रार्थना करने की आज्ञा मांगी। आत्मारामजी - महाराज ! आपश्री ने मेरे ऊपर जो उपकार किया है उसके लिये मैं आजन्म का ऋणी रहूँगा । जिस वस्तु तत्त्व की खोज में मैं बहुत समय से भटक रहा था वह वस्तु तत्त्व अपने वास्तविक स्वरूप मुझे आपसे प्राप्त हो गया। अब मुझे जैन धर्म के वास्तविक स्वरूप में किसी प्रकार का भी भ्रम नहीं रहा । और मैं जो कुछ प्राप्त करना चाहता था सो प्राप्त कर लिया । परन्तु एक बात मेरे हृदय में बहुत दिनों से खटक रही है जिसे कहने के लिये मैंने कईबार संकल्प किया मगर यहां आते ही रुकजाता हूँ जो शब्द मन में कहने हैं वे जिह्वा से नहीं निकलने पाते । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003203
Book TitleNavyuga Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayvallabhsuri
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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