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सन्त रत्न के समागम में
सभी धार्मिक क्रियाकलाप को तिलांजलि देनी पड़ेगी, कारण कि जीवन का कोई भी ऐसा बाह्य व्यापार नहीं फिर वह धार्मिक हो या लौकिक कि जिसमें अग्नि, वायु, जल, पृथ्वी और बनस्पति सम्बन्धी एकेन्द्रिय जीवों की विराधना न होती हो । जैसे कि
जल में गिरि हुई साध्वी को निकालने, विहार करते समय नदी को पार करने में जलकाय के जीवों की विराधना होती है, इसी प्रकार गुरुजनों के दर्शनार्थ जाने आने में, दीक्षामहोत्सव और मृतक साधु के दाहार्थ विमान आदि की रचना में, तथा अनेक प्रकार के बाजे गाजे के साथ जाने आने में एवं चन्दनादि की चिता रचाने में क्या वायुकाय आदि सभी प्रकार के एकेन्द्रिय जीवों का बध नहीं होता ? इसके अतिरिक्त आवश्यकसूत्र के भाष्य में इस विषय का कूप के दृष्टान्त से बड़ा ही सुन्दर स्पष्टीकरण किया है यथा
"अकिसिण पवत्तगाणं, विरयाविरयाण एस खलु जुत्तो।
संसार पयणु करणे दव्वत्थए कूवदिलुतो ।। १६४ ॥ व्याख्या-अकृत्सनं प्रवर्तयतीति संयममिति सामर्थ्याद् गम्यते अकृत्सन प्रवर्तकास्तेषां 'विरताविरतानाम्' इति श्रावकाणाम् “एष खलु युक्तः” एष द्रव्यस्तवः खलु शब्दस्यावधारणार्थत्वात् युक्त एव, किम्भूतोऽयमित्याह'संसार प्रतनुकरणः' संसार क्षयकारक इत्यर्थः । द्रव्यस्तवः आहच-यः प्रकृत्यैवासुन्दरः स कथं श्रावकाणामपियुक्त इत्यत्र कूपदृष्टान्त इति,-जहा णव णयरादि सन्निवेसे केइ पभूय जलाभावओ तरहाइ परिगया तदपनोदार्थ कूवं खणंति तसेंच जहावि तण्हादिया वड्दति मट्टिकाकद्दमाई हि य मलिणिज्जति तहावि तदुब्भवेणं चेवपाणिएणं तेसिं ते तण्हाइया सोयमलो पुव्वो य किट्टइ सेस कालं च ते तदएणेय लोगा सुहभागिणो हवंति । एवं दव्वत्थए जइवि असंजमो तहावि तो चेव सा परिणामसुद्धि हवइ जाए असंजमो वज्जियं अण्णंच णिरवसेसं खबेइति । तम्हा विरया विरएहिं एसव्वत्थो काययो सुभाणुबंधी प्रभूयतर निज्जराफलो पत्तिकाऊणमिति गाथार्थः।
___ इसका संक्षिप्त भावार्थ यह है कि विरताविरत अर्थात् देशविरति-श्रावक को द्रव्यस्तव-द्रव्यपूजा अवश्य करनी चाहिये कारण कि द्रव्यपूजा के अनुष्ठान से वह संसार को-जन्ममरण परम्परा को जल्दी समाप्त करता है, दूसरे शब्दों में वह निकट संसारी हो जाता है । इस पर शास्त्रकार कूप का दृष्टान्त देते हैं-जैसे कोई नया ही नगर बसाया जावे तो उसमें पानी के लिये कुंआ खोदा जाता है, और खोदने वालों की तृषा बढती जाती है और मट्टी कीच आदि से शरीर काला हो जाता है, परन्तु जब पानी निकल आता है तब उससे खोदने वालों का शरीर भी स्वच्छ हो जाता है और तृषा भी शान्त हो जाती है, इसी प्रकार द्रव्यपूजा में एकेन्द्रिय जीवों की विराधना जन्य जो तुच्छसा अनिष्ट होता है वह देवपूजा से निष्पन्न होने वाली भावसरिता के पुनीत प्रवाह में बह जाता है-धुल जाता है । तात्पर्य कि देवपूजा यह शुभानुबन्धी और निर्जरा का हेतु होने से श्रावक के लिये अवश्य आचरण करने के योग्य है।
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