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________________ %3 ४६ नवयुग निर्माता . प्रवृत्तियों की शास्त्र में आज्ञा है जिनमें एकेन्द्रिय जीवों की विराधना अनिवार्य है, जैसे कि विहार में नदी को पार करना, जल में गिरी हुई साध्वी को हाथ से पकड़ कर बाहर निकालना इत्यादि कार्यों में एकेन्द्रिय जीवों की प्रत्यक्ष विराधना होती है और स्त्री के अंगों का प्रत्यक्ष स्पर्श करना पड़ता है, परन्तु ऐसा करने वाला व्यक्ति जीव-विराधनाजन्य पाप का भागी नहीं होता क्योंकि यह प्राचार शास्त्र-विहित अथच भगवद्-आज्ञा के अनुकूल है इसी लिये आचारांग प्रभृति आगमग्रन्थों में भगवद् आज्ञा को धर्म बतलाया है 'आणाए मामगंधम्म' और आज्ञा के विरुद्ध आचरण करने का निषेध किया है यथा"अणाणाए एगे सोवट्ठाणा आणाए एगे निरुवदाणा एवं ते माहोउ" [आचा. लोक. ५ उद्देश्य ६ सू. १६६] व्याख्या-इहतीर्थकर गणधरादिनोपदेश गोचरीभूतो विनेयोऽभिधीयते, यदिवा सर्वभाव संभावित्वाद् भावस्य सामान्यतोऽभिधानम् । अनाज्ञा-अनुपदेशः स्वमनीषकाचारतोऽनाचारस्तयाऽनाज्ञया तस्यां वा “एके" इन्द्रियवशगा दुर्गतिं जिगमिषवः स्वाभिमानग्रहप्रस्ताः सह उपस्थानेन-धर्मचरणाभासोद्यमेन वर्तन्त इतिसोपस्थाना , किल वयमपि प्रब्रजिताः सदसद्धर्म विशेष विवेक विकलाः सावद्यारम्भतया प्रवर्तन्ते, एके तु न कुमार्ग वासितान्तः करणाः किन्तु बालस्या वर्णस्तम्भाधुपवृंहित बुद्धयः "आज्ञायां” तीर्थकरोपदेशप्रणीते सदाचारे निर्गतमुपस्थानं-उद्यमो येषां ते निरुपस्थानाः सर्वज्ञप्रणीत सदाचारानुष्ठान विकलाः, एतत् कुमार्गानुष्ठानं सन्मार्गावसीदनं च द्वयमाय "ते" तव गुरुविनेयोपगतस्य दुर्गतिहेतुत्वान्माभूदिति” । गुरु शिष्य से कहते हैं कि हे शिष्य ! भगवान् की आज्ञा के विपरीत आचरण करना और आज्ञा में प्रमाद करना अर्थात् जिसकी भगवान् ने आज्ञा दी हो उसका आचरण न करना, ये दोनों ही बातें दुर्गति की हेतु हैं इस लिये तुम्हें ये मत प्राप्त हों तात्पर्य कि आज्ञा से बाहर चलने का उद्योग नहीं करना और आज्ञा के अनुसार चलने में सदा सावधान रहना चाहिये । इस पर से यह सुनिश्चित हो जाता है कि वीतराग प्रभु की आज्ञा ही एक मात्र धर्म है अतः जो व्यक्ति उसके अनुसार आचरण करता है वह आराधक है और आज्ञा के विपरीत चलने अथवा आज्ञा में न चलने वाला विराधक है, ऐसी परिस्थिति में भगवदाज्ञा-सिद्ध द्रव्यस्तव-द्रव्यपूजा में प्रभु प्रतिमा पर सद्भावना से चढ़ाये जाने वाले सुगन्धियुक्त विकसित पुष्पों की विराधना का स्वप्न देखने वाले हम या हमारे मत के साधुओं की अदूरदर्शिता पर जितना भी शोक किया जावे उतना कम है। आत्मारामजी-महाराज ! आप जो कुछ फर्मा रहे हैं वह अक्षरशः ठीक है । जहां तक मैंने अनुभव किया है-अपने पंथवालों को तो फूल का नाम भी शूल की माफक चुभता है ! और पूजा सम्बन्धी पुण्यजनक सभी व्यापार में इन्हें एकमात्र हिंसा ही दिखाई देती है जोकि उनके दृष्टि-मान्द्य को ही अभारी है । और यदि केवल केन्द्रिय जीवों की विराधना को सन्मुख रखकर भगवद्-अाज्ञासिद्ध द्रव्यपूजा का परित्याग करें तब तो हमें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003203
Book TitleNavyuga Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayvallabhsuri
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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