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सन्त रत्न के समागम में
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श्री आत्मारामजी-महाराज! यह आपकी बड़ी उदारता है जो मुझ जैसे साधारण व्यक्ति पर इतना असाधारण प्रेम दर्शा रहे हैं, मैने तो आप श्री के पुण्य सहवास से धर्म के विषय में बहुत कुछ अलभ्य लाभ प्राप्त किया है । अस्तु, कृपानाथ ! प्रभुपूजा में जल पुष्पादि सामग्री का जो उपयोग किया जाता है, उसको देख कर अपने पंथ के साधु हिंसा २ कह कर उसका प्रबल विरोध करते हैं और कहते हैं कि जिस काम में हिंसा हो वह धर्म नहीं अपितु अधर्म है । जिन प्रतिमा की प्रचलित पूजा विधि में सचित्त जल और पुष्पादि का प्रत्यक्ष उपयोग होता है और एकेन्द्रिय जीवों की प्रत्यक्ष विराधना होती है इस लिये ऐसे कृत्य को धर्म नहीं कहा जा सकता इत्यादि । तो अपने लोगों का यह कथन कहां तक ठीक है ? इसका स्पष्टीकरण करने की भी आप कृपा करें तो बहुत अच्छा हो। मैं इसका शास्त्रीय रहस्य जानना चाहता हूँ।
श्री रत्नचन्दजी--भाई आत्माराम ! तुम सचमुच ही आत्माराम हो, इस लिये नहीं कि तुम्हारा गुणनिष्पन्न नाम आत्माराम है बल्कि इस लिये कि तुम मेरे आत्मा में रमण कर रहे हो। मेरे मन में अभी २ यह विचार उद्भव हुआ था कि मूर्तिपूजा के विरोध में अपने सम्प्रदाय वाले हिंसा का भय दिखला कर भोली जनता को इस पुण्यानुबन्धी पुनीत कर्त्तव्य से दूर करने का यत्न कर रहे हैं, और इसमें उन्हें किसी हद तक सफलता भी मिली है अर्थात् बहुत सी भोली जनता उनके इस शास्त्र विरुद्ध कथन या बहकावे में
आकर मूर्तिपूजा-देवपूजा को छोड बैठे हैं। अतः इस विषय पर भी कुछ विचार विनिमय करना आवश्यक है। सो मैं अभी इस प्रसंग को छेडने का विचार ही कर रहा था कि इतने में तुमने स्वयं ही यह प्रश्न उपस्थित कर दिया । अच्छा ! अब इस प्रश्न का उत्तर [नहीं २ सदुत्तर] भी सुनो और ध्यानपूर्वक सुनो
मूर्तिपूजा के सम्बन्ध में यह बात दो और दो चार की तरह सत्य है कि श्रमण भगवान महावीर स्वामी से लेकर विक्रम की सोलवीं शताब्दी के पूर्व तक के समस्त जैन वाङ्मय में उसके प्रतिवाद में एक अक्षर भी उपलब्ध नहीं होता, तथा यह भी निर्धान्त सत्य है कि मूलागमों, अंगों और उपांगों में मूर्तिपूजा के समर्थक पर्याप्त पाठ हैं और नियुक्ति, भाष्य, चूर्णी और टीकाकार आचार्यों ने तो उसके सम्बन्ध में इतना स्पष्ट उल्लेख किया है कि उनको देखते हुए किसी भी विचारशील व्यक्ति को मूर्तिपूजा की प्रामाणिकता और विधेयता में लेशमात्र भी सन्देह बाकी नहीं रह जाता । तब यह अनायास ही सिद्ध हो गया कि मूर्तिपूजा-मूर्तिउपासना यह एक शास्त्रसिद्ध सुविहित प्राचार है जो कि गृहस्थ और साधु दोनों के लिये अनुष्ठेय है, द्रव्य
और भावरूप से गृहस्थ के लिये और केवल भावरूप से साधु के लिये । इसके अतिरिक्त द्रव्यस्तव द्रव्यपूजा की अनुमोदना का अधिकार सर्वविरति साधु को भी शास्त्रकारों ने स्पष्शब्दों में दिया है।
ऐसे शास्त्र विहित आचार की-जो कि भगवद् आज्ञा के सर्वथा अनुकूल हो, अवहेलना करना, साक्षात् भगवद् अाज्ञा का उल्लंघन ही नहीं किन्तु महान् अनादर करना है। ऐसा व्यक्ति या व्यक्ति समुदाय जैन सिद्धान्तानुसार आराधक नहीं किन्तु विराधक माना गया है। शास्त्र मूलक किसी भी धार्मिक प्रवृत्ति को इतने मात्र से अपवादित नहीं किया जा सकता कि उसमें एकेन्द्रियजीवों की विराधना होती है, ऐसी अनेक
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