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________________ ४४ नवयुग निर्माता श्री आत्माराम जी - बस महाराज ! अब तो हद होगई ! हमलोग तो हिंसा २ चिल्ला कर गृहस्थों को इस शुभ कृत्य से दूर करते थे परन्तु शास्त्रकार तो साधु के लिये भी उसकी अनुमोदना का आदेश दे रहे हैं। मालूम होता है कि अपने लोगों ने इसी कारण से आवश्यक सूत्र के उक्त पाठ की उपेक्षा करदी है अर्थात् इस पाठ का ही परित्याग कर दिया । कितना अन्धेर ! इससे अधिक दुराग्रह या मूर्खता का जीता जागता उदाहरण और क्या हो सकता है ? श्री रत्नचन्द जी - भाई ! मैंने तो पहले ही तुमसे कह दिया है कि यह सब कुछ मूर्तिपूजा को For करने के लिये ही किया गया है, अच्छा अब लगते हाथ प्रस्तुत पुस्तक में से एक और उदाहरण भी देख लीजिये फिर जब २ समय मिले स्वयं देखते रहना, यह तो इसमें से नमूना मात्र तुमको दिखा दिया गया है । इसी आवश्यक सूत्र के भाष्य की २४ वीं गाथा में लिखा है - श्री भरतचक्रवर्ती ने अष्टापद पर्वत पर मंदिर बनवाकर उसमें २४ तीर्थंकरों की प्रतिमायें प्रतिष्ठित कीं । यथा $ "धूभ सयंभाउगाणं चउवीसं जिणहरे कासी । सव्व जाणं पडिमा वरण पमाणेहिं नियएहिं ।। " तत्थणं देवच्छंद चवीसाए चित्थगराण नियगप्पमाण बन्नेहिं पत्तेयं पत्तेयं पडिमा कारेति" [ चूर्णीकारः ] इस प्रकार के अनेक लेख तुम को इस शास्त्र में उपलब्ध होंगे। श्री आत्मारामजी - महाराज ! मुझे तो इस विषय में अब कोई सन्देह रहा नहीं, और मैंने यह Stars for frक्ति, भाष्य, चूर्णी और पूर्वाचार्यों के टीकादिक के आश्रय के बिना निर्ग्रन्थ प्रवचन का रहस्य समझ में आना कठिन ही नहीं किन्तु असम्भव प्राय है । परन्तु एक बात, जो कि बिलकुल साधारणसी है और जिस पर अपनी सम्प्रदाय वाले अधिक जोर देते हैं स्वयं जानते हुए भी उसका निर्णय आप श्री के मुखारविन्द से कराने की इच्छा रखता हूँ, यदि आपकी आज्ञा हो तो कहूँ । श्री रत्नचन्दजी - कहो क्या बात है ? अपने को यहां सिवाय शास्त्रचर्चा या धर्मचर्चा के और काम ही क्या है ? अपने तो तटस्थमनोवृत्ति से शास्त्र के द्वारा वस्तु-तत्त्व का निर्णय करना है उसमें किसी हठ या दुराग्रह को स्थान नहीं देना है । इस लिये तुम्हारे मन में जो कोई भी विचार हो उसे बिना संकोच हो । प्रकार $ स्तूप शतं भ्रातॄणां भरतः कारितवानिति तथा चतुर्विंशतिश्चैव जिनग्रहे - जिनायतने (जिनायतनानि ) कृतवान् सर्व जिनानां प्रतिमा वर्ण प्रमाणै: निजैः श्रात्मीयैरित्यर्थः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003203
Book TitleNavyuga Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayvallabhsuri
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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