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________________ सन्त रत्न के समागम में ४३ "अरिहंता तित्थगरातेसिं चेइयाणि अरिहंत चेहयाणि अर्हतप्रतिमा इत्यर्थः,तेसि वंदना प्रत्ययं ठामि काउस्सग्गमिति योगः तत्र वंदित्वात्तेषां वन्दनार्थ कायोत्सर्ग करोमि, श्रद्धादिभिर्वर्द्धमानः सद्गुणसमुत्कीर्तनपूर्वकं कायोत्सर्ग स्थाने वन्दनं करोमिति यावत् । एवं पूज्यत्वात्तेषां पूजनार्थ कायोत्सर्ग करोमि । श्रद्धादिभिः सद्गुणसमुत्कीर्तन पूर्वकं कायोत्सर्गस्थानेनैव पूजनं करोमीत्यर्थः । यथाकोईगंधचुएणवासमल्लादीहिं समभ्यर्चनं करोतीति" भावार्थ-सर्व लोक में स्थित अर्हच्चैत्यों-तीर्थकर प्रतिमाओं के वन्दन, पूजन, सत्कार और सम्मान के लिये मैं कायोत्सर्ग करता हूँ । तात्पर्य कि तीर्थंकर प्रतिमाओं को साक्षात्-श्रद्धा पूर्ण हृदय से वन्दन करने, पूजन करने, सत्कार और सम्मान करने का जो पारलौकिक फल साधक को प्राप्त होता है वह मुझे इस कायोत्सर्ग द्वारा प्राप्त हो, इस भावना से मैं कायोत्सर्ग करता हूँ, अथवा यूं कहिये कि वन्दन, पूजन, सत्कार और सम्मान के स्थानापन्न मेरा यह कायोत्सर्ग हो । सारांश कि अर्हत् प्रतिमाओं के वन्दन, पूजन, सत्कार और सम्मान निमित्त ही मैं यह कायोत्सर्ग कर रहा हूँ। श्री रत्नचन्द जी-आवश्यक सूत्र के इस मूलपाठ और उसकी चूर्णी के पाठ से गृहस्थ के द्वारा किये जाने वाले द्रव्य और भावपूजन की अनुमोदना करने का विधान है । तात्पर्य कि साधु को द्रव्य पूजा करने का अधिकार नहीं वह तो केवल भावपूजा कर सकता है परन्तु द्रव्यपूजा का अनुमोदन उसे भी करना चाहिये यह इस सूत्र का परमार्थ है । शास्त्रकारों ने द्रव्यपूजा को द्रव्यस्तव और भावपूजा को भावस्तव के नाम से कथन किया है और द्रव्यस्तव तथा भावस्तव का अर्थ करते हुए भाष्यकार लिखते हैं दव्वत्थो पुप्फाई, संतगुण कित्तणा भावे" (१६१, अर्थात् पुष्पादि के द्वारा जिन प्रतिमा का पूजन करना द्रव्यस्तव है और भक्तिभाव से प्रभुका गुणकीर्तन-गुणगान करना भावस्तव कहलाता है । इसलिये देश विरति गृहस्थ की बात तो अलग रही सर्वविरति साधु के लिये भी अनुमोदना रूप से पूजा का अधिकार शास्त्रविहित सिद्ध होता है । * कहो ! अब इससे अधिक क्या चाहते हो ? (8) द्रव्यस्तव: पुष्पादिभिः समभ्यर्चनम् ( हरिभद्रसूरि प्रा. वृत्तौ) (8) इस सम्बन्ध में पूज्य हरिभद्रसूरि का उल्लेख द्रष्टव्य है - जइणोविहु दव्वत्थय भेदो अणुगोयणेण यास्थिति । एयं च एत्थणेयं इय सुद्रुतंत जुत्तोए" [पंचा. ६।२८] अर्थात् भावस्तव-भावपूजा में प्रारूढ़ होने वाले यति-साधु के लिये भी अनुमोदन रूप से द्रव्यस्तव-द्रव्यपूजा का अधिकार शास्त्र सम्मत है अतः वह अनवद्य है-निर्दोष है । [ यतेरपि-भावस्तवारूढ़ साधोरपि न केवलं गृहिण एव, द्रव्यस्तव भेदो द्रव्यस्तव विशेष: अनुमोदनेन जिनपूजादि-दर्शन जनित प्रमोद-प्रशंसादि लक्षणयाऽनुमत्या अस्ति विद्यते xxx तत्र युक्त्या शास्त्रगर्भो पपत्त्या” इति तत्र श्री अभयदेव सूरिपादाः । (लेखक) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003203
Book TitleNavyuga Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayvallabhsuri
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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