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नवयुग निर्माता
तीर्थकराकृतीनि सिंहासनादियुक्तानि देवकृतानि भवन्ति, शेषदेवादीनामप्यस्माकं पुरतः कथयतीति प्रतिपत्यर्थमिति, भगवतश्च पादमूलमे केन गणधरेणाविरहितमेव भवति स च ज्येष्ठोवाऽन्योवेति, प्रायोज्येष्ठ इति, स ज्येष्ठ गणीरन्यो वा दक्षिण-पूर्व-दिग्भागे अदूरे प्रत्यासन्ने एव भगवतो भगवन्तं प्रणिपत्य निषीदतीति क्रियाध्याहारः । शेष गणधरा अप्येवमेव भगवन्तमभिवन्ध तीर्थकरस्य मार्गतः पार्श्वतश्च निषीदन्तीति गाथार्थः । भुवनगुरु रूपस्य त्रैलोक्यगत-रूपसुन्दरत्वात् त्रिदशकृत् प्रतिरूपकाणां किं तत् साम्यमसाम्यं वेत्याशंका निरासार्थमाह-जेते देवेहिकया
यानि तानि देवैः कृतानि तिसृषु दिक्षु प्रतिरूपकाणि जिनवरस्य तेषामपि “तत्प्रभावात्" तीर्थकरप्रभावात् “तदनुरूपं” तीर्थकर रूपानुरूपं भवति रूपमिति गाथार्थः ॥
इसका भावार्थ वही है जिसका वर्णन वृहत्कल्प भाष्य के प्रसंग में किया गया है।
श्री आत्माराम जी-महाराज ! यह तो अब सुनिश्चित हो गया कि नियुक्ति और भाष्यादि के बिना आगमों के परमार्थ को जानना नितान्त कठिन है । इस लिये आगमों के समान ही इन्हें मानना उचित और युक्तियुक्त प्रतीत होता है । इतना कहने के बाद आप फिर बोले–महाराज ! बृहत्कल्पभाष्य की तरह इसमें से भी किसी मूर्ति सम्बन्धी पाठ को दिखलाने की कृपा करो ?
श्री रत्नचन्द जी-इसमें तो मूर्तिपूजा के समर्थक पाठों का ही प्राचुर्य है तुम जब इसका सांगोपांग स्वाध्याय करोगे तो अपने आप ही तुम्हें सब कुछ विदित हो जावेगा । और मैं भी आज तुमको एक पाठ बतलाये देता हूँ जिससे मूर्तिपूजा का आदशे तुम्हारी आखों के सामने प्रत्यक्ष रूप से झलकने लगेगा।
इतना कहने के बाद पुस्तक हाथ में लेकर उसमें से पूजासम्बन्धी पाठ निकालकर-जो ! यह मूलपाठ है इसको पढ़ो और विचारो ?
श्री आत्माराम जी-जैसी आज्ञा महाराज ! कहते हुए आवश्यक सूत्र के पाठ को देखकर पढ़ने लगे यथा
x “सव्वलोए अरिहंत चेइयाणं करेमि काउस्सग्गं, बंदण वत्तियाए, पूयण वत्तियाए सक्कार वत्तियाए सम्माण वत्तियाए" इत्यादि।
"अच्छा अब इस सूत्रकी व्याख्या में चूकार ने जो कुछ लिखा है उसे भी पढ़ो"- श्री रत्नचन्द जी ने महाराज आत्माराम जी को सम्बोधित करते हुए कहा । आपके इस आदेश को सुनकर आत्माराम जी चूर्णीकार की व्याख्या को पढ़ने लगे, चूर्णी पाठ
x छाया - सर्वलोके अर्हच्चैत्यानां करोमि कायोत्सर्ग, वन्दन प्रत्ययं पूजन प्रत्ययं सत्कार प्रत्ययं सम्मान प्रत्ययम् ।
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