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सन्त रत्न के समागम में
हैं, तभी तो कहा जाता है कि ३१ सूत्र सब के और बत्तीसवां आवश्यक सूत्र घर घर का है । परन्तु यह जो तुम्हारे हाथ में आवश्यकसूत्र है, इसमें मूल तो गणधर रचित है, इसके ऊपर जो नियुक्ति है उसके रचयिता पंचम श्रुत केवली चतुर्दशपूर्वधारी श्री भद्रबाहु स्वामी हैं, एवं भाष्य और चूर्णी पूर्वधरों की टीका श्री हरिभद्रसूरि की है, यदि इन सब को एकत्रित किया जाय तो यह और भी बहुत बढ जाता है । अकेले सामायिक अध्ययन पर भाष्य और उस पर मलधारी श्री हेमचन्द्र सूरि की जो टीका कही जाती है, दोनों का सारा पाठ २८००० श्लोक प्रमाण है। इसमें सामायिक अध्ययन गत 'करेमिभंते' की जो व्याख्या है उसी का १२००० श्लोक प्रमाण पाठ है।
__ भाई आत्माराम ! तुम यह तो सोचो ! भगवान का ज्ञान अनन्ता कहा है तो क्या उसका समास केवल इन ३२ सूत्रों में ही हो गया ? कदापि नहीं । मैंने तुमको प्रथम भी कई बार कहा है और अब भी मैं यही कहता हूँ कि केवल मूल ३२ सूत्रों की मान्यता और शेष नियुक्ति, भाष्य और चूर्णी आदि की अवहेलना, इसमें मूर्तिपूजा का विरोध ही एकमात्र कारण है । अन्यथा कोई वजह नहीं कि आगमों के व्याख्यान रूप इन नियुक्ति और भाष्यादि को आगमों की भांति प्रामाणिक न माना जाय । प्रभुप्रतिमा-विरोधी दुर्भावना ने हमारी मनोवृत्ति को इतनी संकुचित और हठीली बना दिया है कि यथार्थता की अोर तनिक सा भी दृष्टिपात नहीं कर पाते, यही हमारा असद्भाग्य है। अच्छा, अब 'आवश्यकसूत्र की बात करें-कितनी एक ऐसी बातें हैं जिनको हम मानते और आचरण में लाते हैं, परन्तु उनका उल्लेख अपने माने हुए ३२ सूत्रों में कहीं पर भी नहीं मिलता, यदि मिलता है तो इसी आवश्यक सूत्र और उसके नियुक्ति, भाष्यादि में मिलता है, मैंने इसका अनेक बार स्वाध्याय किया है, यह बड़ा ही महत्वपूर्ण ग्रन्थ है तुमको इसका अवश्य स्वाध्याय करना चाहिये ।
अनुयोगद्वारसूत्र में उपोद्घात नियुक्ति के जो २६ द्वार कहे हैं उसका वर्णन इसमें बडे ही विस्तार से किया है । इन २६ में से निगमद्वार में भगवान श्री ऋषभदेव सन्तानीय मरीचीनामा भरत के पुत्र का [जो चौबीसमें तीर्थंकर भगवान महावीर के नाम से संसार में विख्यात हुए] चरित्र वर्णन किया है। भगवान महावीर स्वामी को केवलज्ञान होने के बाद उनके लिये देवताओं ने समवसरण की जो रचना की उसका भी वर्णन है यथा
"प्रायाहिणं पुव्वमहो तिदिसि पडिरूवगाउ देवकया । जेट्ठगणी अएणोवा दाहिण पुव्वे अदूरंमि ।।५५६।। जेते देवेहिकया तिदिसि पडिरूवगा जिणवरस्स ।
तेसिपि तप्पभावा तयाणुरूवं हवइ रूवं ॥५५७।।" व्या-स एवं भगवान पूर्व द्वारेण प्रविश्य “आयाहिणं” त्ति- चैत्यद्रुम प्रदक्षिणां कृत्वा "पुव्वमहोत्ति” पूर्वाभिमुख उपविशतीति “तिदिसि पडिरूवगाउ देवकयात्ति” शेषासु तिसृषु दिनु प्रतिरूपकाणि तु
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