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________________ ४० नवयुग निर्माता दूसरे दिन श्री रत्नचन्दजी के आदेशानुसार आत्मारामजी उनके स्थान पर पहुंचे और वन्दना नमस्कार के अनन्तर जब उन्होंने आवश्यकनियुक्ति के पाठ की बाबत प्रार्थना की तो महाराज रत्नचन्दजी बोले- कि भाई ! जरा बैठो अपने वही काम करना है। जरा कल की बात तो सुनलो ? कल जो श्रावक आये थे उनमें कितने एक तो श्वेताम्बर थे कितने एक दिगम्बर और थोड़े से अपने मत वाले थे । तुम्हारे जाने के बाद उन्होंने मुझसे पूछा- कि महाराज ! यह साधु इतनी छान बीन क्यों कर रहा है ? मैंने कहा कि छान बीन तो कोई नहीं, यह तो शास्त्रों के पाठों का मिलान कर रहा है और एक दूसरे के मिलान से वस्तु तत्त्व के परमार्थ का ठीक ठीक पता लग जाता है । समवसरण का स्वरूप कल्पसूत्र के कथनानुसार जानना "ऐसा समवायांग सूत्र में उल्लेख किया है” परन्तु अपने पास जो कल्प सूत्र है वह तो बहुत छोटा और केवल मूल मात्र ही है उसमें तो समवसरण का कोई जिकर नहीं, वह तो कल्पसूत्र के भाग्य में है, जिस का वर्णन तुमको कह सुनाया है, जब भाष्य का वह स्थल निकाला और समवसरण का स्वरूप बतलाया तब उन्होंने कहा - महाराज ! अपने भाष्य, चूर्णी, नियुक्ति और टीका आदि को तो मानते नहीं, केवल मूल पाठ को ही मान्य रखते हैं परन्तु मूल पाठ में, समवायांग सूत्र में दिये गये समवसरण के संकेत का सर्वथा अभाव है ऐसी दशा में तो भाष्य को माने बगैर कोई भी गति नहीं । या तो भाष्य को मानो या समवायांग सूत्र के उक्त पाठ पर हरताल फेर दो इसके सिवा और तो कोई उपाय सूझता नहीं । इस पर उन श्रावकों में से एक ने कहा- महाराज ! जब अपने यह मानते हैं कि "अत्थं भासड़ रहा सुत्तं गुंधति गहरा न्यूना" अर्थात् प्रथम भगवान् अर्थ रूप से पदार्थ का वर्णन करते हैं और बाद में गणधर महाराज उसका सूत्र रूप में गुंथन करते हैं । जब कि भगवान हुए अर्थ के बाद सूत्रों का गुन्थन हुआ तो इन नियुक्ति भाष्य और चूर्णी आदि में उन अर्थों का ही तो गुन्न किया गया है । इसलिये सूत्र को मानना और उसके अर्थ से इनकार करना यह तो कभी भी न्यायसंगत नहीं माना जा सकता, इत्यादि । श्री आत्मारामजी - महाराज ! यह सब आपके ही सेवक तो हैं। आपकी कृपा का ही परिणाम है जो इनमें इतनी उदारता आगई है अन्यथा इतना स्पष्ट वचन कहना कोई साधारण बात नहीं है । श्री रत्नचन्द जी - श्रच्छा ! अब अपने आवश्यकसूत्र का निरीक्षण करें। लो ! यह रहा आवश्यक सूत्र का पुस्तक, इसे देखो और निश्चय करो। श्री श्रात्मारामजी पुस्तक देख कर - अरे महाराज ! यह इतना बड़ा आवश्यक सूत्र तो आज ही देखने को आया है यह तो हमारे माने हुये ३२ सूत्रों के समुच्चय मूलपाठ से भी बडा होगा, अपने लोग जिस आवश्यकसूत्र लिये फिरते हैं, उसमें तथा इसमें तो आकाश-पाताल जमीन-आसमान जितना अन्तर दिखाई देता है । श्री रतनचन्दजी - भाई ! अपना तो केवल मूल ही मूल है जो कि पत्र पुष्प और शाखा प्रशाखादि रहित रु'ड मुंड वृक्ष की तरह मार्गभ्रान्त - पथिक को किसी प्रकार की भी सुखद छाया देने से वंचित है । इसमें तो आवश्यक भी पूरे नहीं हैं। गणधर देव की वारणी में भाषा का पाठ मिलाकर फोकट के धनी बन बैठे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003203
Book TitleNavyuga Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayvallabhsuri
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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