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________________ सन्त रत्न के समागम में ३६ - श्राता है परन्तु यह आपको पढ़ाते हैं इसका रहस्य हमारी समझ में नहीं आया । श्री रत्नचन्दजी उत्तर देते हुए बोले-भाई ! देखो, मेरी आयु का बहुत सा भाग व्यतीत हो चुका है आजतक मेरे पढ़े पढ़ाये को पूछने और उसकी पूरी पूरी जांच पड़ताल करने वाला कोई भी योग्य व्यक्ति मेरे पास नहीं आया। परन्तु मेरे सद्भाग्य से बहुत समय के बाद एक यह साधु मेरे पास पढ़ने के व्याज से सत्यासत्य के निर्णयार्थ आया है जिससे मेरे हृदय में बहुत प्रसन्नता हुई है सो यह शास्त्र सम्बन्धी जो जो बातें मुझसे पूछता है मैं उन्हें स्मृतिपथ पर लाते हुए शास्त्र निकाल कर इसे बतलाता हूँ। उसमें जो जो शंका इसकी तरफ से उपस्थित की जाती है उसका यथार्थ समाधान करने का सफल प्रयास करता हूँ। इससे मेरा पढ़ा पढ़ाया पदार्थ फिर से ताजा होता जाता है । इसके आने से पहले आज मैंने तुमसे कहा भी था एक परदेशी साधु मेरे पास पढ़ने के बहाने जैनागमों का परमार्थ समझने के लिये आया हुआ है । समवायांगसूत्र-गत “कापस्स समोसरणं नेयब्व" के रहस्य को समझाने के लिये समवायांग सूत्र की टीका में “कल्प" शब्द से अभिप्रेत “वृहत्कल्प भाष्य' के पाठ में वर्णित समवसरण के स्वरूप को समझाने के लिये वृहत्कल्प भाष्य का पुस्तक निकाल कर दिखाया कि समवसरण में पूर्वाभिमुख तीर्थंकर महाराज विराजते हैं और बाकी की तीन दिशाओं में तीर्थंकर के समान रूप एवं आकार वाली तीन प्रतिमायें देवता स्थापन करते हैं जो कि तीर्थंकर भगवान के अतिशय से उनके समान ही भासती हैं । और आज इसी आशय का आवश्यक नियुक्ति का पाठ दिखलाने का वचन दिया हुआ है, परन्तु तुम लोगों ने आजही वापिस चले जाना है इसलिये आज का पठन पाठन बन्द रक्खा गया है। अब तुमही बतलायो कि इस साधु के निमित्त से मेरे पढ़े हुए का जो पुनरावर्तन हो रहा है उस दृष्टि से यह मेरे को पढ़ाने वाले सिद्ध हुए कि नहीं ? .. __ सभी सद्गृहस्थ हाथ जोड़कर-महाराज! आप श्री की व्यंगोक्ति का रहस्य अब समझ में आया । आप बड़े दयालु हैं और इसके अतिरिक्त आपने जो समोसरण की बात कही सो यह तो आम प्रसिद्ध है कि देवता लोग समवसरण की रचना करते हैं जिसमें एक तरफ पूर्व दिशा में तो स्वयं भगवान बिराजते हैं और बाकी तीन दिशाओं में उनकी प्रतिमायें विराजमान की जाती हैं जो कि प्रभु के अतिशय से वहां उपस्थित जनता को प्रभु के समान ही भासती हैं, तात्पर्य यह कि देखने वाले यही समझते हैं कि भगवान हमारे ही सामने विराजमान हैं, आज कल जैनपरम्परा के श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों ही समोसरण की रचना बड़े आडम्बर के साथ करते हैं । उसमें जो सिंहासन होता है उसपर चारों तरफ चार प्रतिमायें विराजमान की जाती हैं, दर्शन करने वालों को चारों ही तरफ प्रभु के दर्शन होते हैं। उन आगन्तुक श्रावक वर्ग के इस वार्तालाप से श्री आत्मारामजी को बड़ी प्रसन्नता हुई, वे श्री रत्नचन्दजी को विधि पूर्वक वन्दना करके अपने स्थान को चले गये । चलते समय श्री रत्नचन्दजी ने उन्हें कहाकि कल जरा जल्दी पधारना ताकि अपना कार्य समय पर सम्पन्न हो जावे । “बहुत अच्छा बड़ी कृपा” कहकर श्री आत्मारामजी अपने स्थान पर आगये । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003203
Book TitleNavyuga Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayvallabhsuri
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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