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नवयुग निर्माता
कभी २ अज्ञान मूलक चैत्य के ज्ञान अथच साधु अर्थ करने के दृढ़ हुए संस्कारों से जो मन कुछ शंकाशील हो उठता था अब तो उसका भी सफाया होगया । प्रस्तुत प्रकरण में यदि कोई साधर्मिक-चैत्य, मंगल चैत्य, शाश्वत-चैत्य और भक्ति-चैत्य का ज्ञान या साधु अर्थ करने की धृष्टता करे तो विचारशील पुरुषों की सभामें न जाने उसे किस लोकोत्तर पदवी से अलंकृत करने का यत्न किया जावे । और मेरे विचारानुसार तो ऐसे महानुभाव की बुद्धि का दिवाला ही निकला हुआ समझना चाहिये । इसके अतिरिक्त उसदिन उपासकदशा और औपपातिक सूत्र के आनन्द श्रावक और अम्बड़ परिव्राजक के अधिकार में प्रयुक्त हुए "अरिहंत चेइयाई"-अर्हच्चैत्यानि के अर्थ विवेचन में आपने भी तो यही फर्माया था कि अपने सम्प्रदाय के लोग यहां पर जो चैत्य के ज्ञान या साधु अर्थ करते हैं वह सर्वथा आगमविरुद्ध और मिथ्याप्रलाप है,
चैत्य शब्द का आगमों में साधु या ज्ञान अर्थ में कहीं पर भी प्रयोग नहीं हुआ । परन्तु यहां तो उक्त अर्थके लिये अणुमात्र भी स्थान नहीं । अस्तु आप श्री की इस महतीकृपा का मैं अधिक से अधिक आभारी हूँ। अब कृपाकरके आवश्यक सूत्र का वह पाठ भी दिखलावें जिसके लिये समवायांग सूत्र की टीका में पूज्य अभयदेवसूरि ने संकेत किया है।
श्री रत्नचन्द जी-भाई ! आज काफी समय हो गया है इस लिये आवश्यक सूत्र की बात कल पर रखिये।
"बहुत अच्छा महाराज" इतना कहने के बाद दोनों महानुभाव वहां से उठकर अपने २ स्थान की ओर प्रस्थित हुए।
अगले दिन जब आत्मारामजी महाराज, श्री रत्नचन्दजी के उपाश्रय में पहुंचे तो वे बाहर से आये हुए कतिपय श्रद्धालु गृहस्थों को धर्मोपदेश दे रहे थे। श्री आत्मारामजी वन्दना करके वहां बैठ गये। तब श्री रत्नचन्दजी ने आपको सम्बोधित करते हुए कहा कि भाई ! कल अपने आवश्यक सूत्र के पाठ को देखने का जो निश्चय किया था उसे आज स्थगित करना पड़ेगा। क्योंकि आज ये परदेशी लोग यहां पर आये हैं इनको भी कुछ बतलाना और समझाना है।
__ श्री आत्मारामजी हाथ जोड़कर-महाराज! इस समय आप जो कार्य कर रहे हैं वह उससे भी अधिक उपयोगी और लाभकारी है, आप कृपया अपने सदुपदेश को चालु रक्खें ताकि मैं भी यहांपर बैठा हुआ उससे अपने कर्ण कुहरों को पवित्र कर सकें। यह सुन श्री रत्नचन्दजी खिड़खड़ा कर हंस पड़े और आगन्तुक महानुभावों की ओर दृष्टि फेरते हुए बोले-भाई श्रावको ! देखा ? यह साधु कितना ज्ञान-पिपासु और विनयशील है। कई दिनों से यह मेरे पास ज्ञानाभ्यास के लिये आया हुआ है परन्तु मेरे विचार से तो यह मेरे पास शास्त्राभ्यास करने के लिये नहीं अपितु मेरे को शास्त्राभ्यास कराने के लिये आया है । सब श्रावक हाथ जोड़कर कुछ मुस्कराते हुए बोले-महाराज! आप श्री जो कुछ फरमा रहे हैं सम्भव है वही यथार्थ हो परन्तु हमारी समझ में यह नहीं आया कि आपके इस कथन का परमार्थ क्या है । ये आपसे पढ़ते हैं यह तो समझ में
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