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________________ सन्त रत्न के समागम में (क) “साहम्मियाण अट्ठा, चउबिहे लिंगो जह कुडुंबी । मंगल सासय भत्तीइ जं कयं तस्य आदेसो ॥ १७७४ ॥ व्याख्या-चैत्यानि चतुर्विधानि, तद्यथा-साधर्मिक चैत्यानि, मंगल चैत्यानि शाश्वत, चैत्यानि, भक्ति चैत्यानि चेति xxxx तत्र स्वधर्मिकाणामर्थाय यत कृतं तत् साधर्मिक चैत्यम् ।। (ख) "अरहंत पइट्ठाए महुरा नयरीए मंगलाई तु । गेहेसु चच्चरेसु य, छन्नउइ गाम अद्धसु ॥१७७६।। व्याख्या-मथुरा नगर्यां गृहे कृते मंगल निमित्तमुत्तरंगेषु प्रथममर्हत प्रतिमाः प्रतिष्ठाप्यन्ते, अन्यथा तद् गृहं पतति, तानि मंगल चैत्यानि । तानिच तस्यां नगर्यां गेहेषु चत्वरेषु च भवन्ति । xxxxxxxi शाश्वत चैत्य भक्ति चैत्यानि दर्शयति "निइयाई सुरलोए भत्तिकयाई तु भरहमाईहिं ॥ ११७७ ॥ व्याख्या-नित्यानि शाश्वत चैत्यानि सुरलोके भवनपति-व्यन्तर-ज्योतिष्क-वैमानिक-देवानां भवन नगर विमानेषु उपलक्षणत्वात् मेरुशिखर वैताठ्याद्रिकूट नन्दीश्वर रुचक वरादिष्वपि भवन्तीति । तथा भक्त्या भरतादिभिर्यानि कारितानि अन्तर्भूतण्यर्थत्वात् भक्तिकृतानि ।। भावार्थ-चैत्य चार प्रकार के होते हैं यथा-साधर्मिक-चैत्य, मंगल-चैत्य, शाश्वत-चैत्य और भक्तिचैत्य (१) जो साधर्मिकों के लिये बनाया जाय उसका नाम साधर्मिक-चैत्य है। (२) मथुरा नगरी में घर बनाकर मंगलार्थ द्वार के ऊपर जो तीर्थंकर देव की प्रतिमा स्थापित की जाती है उसे मंगल चैत्य कहते हैं । (३) देवलोक में अर्थात् भवनपति, व्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों के भवन नगर और विमानों में एवं मेरु वैताठ्य नन्दीश्वर तथा रुचकवरादि में तीर्थंकर देवों की जो शाश्वती प्रतिमायें हैं वे शाश्वत चैत्य कहे जाते हैं । (४) और जो तीर्थंकर प्रतिमायें सेवा पूजा के लिए भक्ति भाव से बनवाकर प्रतिष्ठित की जाती हैं उनका नाम भक्ति चैत्य है, जैसे कि भरत चक्रवर्ती आदि के द्वारा प्रतिष्ठित जिन प्रतिमायें भक्तिचैत्य के नाम से प्रसिद्ध हैं । श्री रत्नचन्द जी महाराज, आत्माराम जी को सम्बोधित करते हुए बोले-कहो ! इस पाठ से प्रतिमा के सम्बन्ध में तुम्हें क्या अनुभव हुआ ? क्या अब भी कोई शंका बाकी रह जाती है ? ___ श्री आत्माराम जी-गुरुदेव ! अनुभव की क्या पूछते हो, इस पाठ से तो मन के किसी अज्ञात प्रदेश में भी मूर्तिपूजा सम्बन्धी बचा खुचा प्रतिकूल संस्कार भी सदा के लिये किसी अज्ञात दिशा को प्रस्थान करगया, और अब मन बिलकुल स्वच्छ स्फटिक की भांति निर्मल होगया, अब तो स्वच्छ दर्पण में मुख की तरह उसमें मूर्तिपूजा का विशुद्ध स्वरूप ही अपनी गौरवास्पद आगमिकता के साथ प्रतिबिम्बित हो रहा है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003203
Book TitleNavyuga Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayvallabhsuri
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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