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नवयुग निर्माता
चालंकृतानि प्रतिरूपकारिण देवकृतानि भवन्ति यथा सर्वोऽपि लोको जानीते “भगवानस्माकं पुरतः कथयति” । भगवतश्च पादमूलं जघन्यत एकेन गरिणना - गणधरेणऽविरहितं भवति, सच ज्येष्ठोऽन्यो वा भवेत् प्रायो ज्येष्ट एव । सच ज्येष्ट गरिणरन्यो वा पूर्वद्वारेण प्रविश्य दक्षिण पूर्वे दिग्भागे "अदूरे" प्रत्यासन्न एव भगवतो भगवन्तं प्रणिपत्य निषीदति । शेषा अपि गणधरा एकमेवाभिवन्द्य ज्येष्टगरणधरस्य मार्गतः पार्श्वतश्च निषीदन्तीति ॥११६३॥
यानि तानि देवैः कृतानि तिसृषु दिक्षु जिनवरस्य प्रतिरूपकारिण तेषामपि " तत्प्रभावात्" तीर्थकर प्रभावात् “तदनुरूपं” तीर्थकररूपानुरूपं भवंति ||११६४॥
भावार्थ–प्रभु, चैत्यवृक्ष को प्रदक्षिणा देकर पूर्वाभिमुख-पूर्व दिशा को सन्मुख करके सिंहासन पर विराजमान होते हैं । बाकी की तीन दिशाओं में देवता लोग प्रभु समान छत्र चामरादि से अलंकृत तीन प्रतिमा बनाकर सिंहासनारूढ़ करते हैं। इस प्रकार चारों ही दिशाओं में प्रभु के दर्शन होते हैं । और प्रत्येक व्यक्ति यही समझता है कि भगवान् मेरी तर्फ मुख करके बोल रहे हैं। भगवान के अतिशय से देवों के द्वारा प्रतिष्ठित की जाने वाली प्रतिमायें भी साक्षात् प्रभु के समान ही भासती हैं । तथा भगवान का पादपीठ न्यून से न्यून एक गणधर सहित होता है अर्थात प्रभु का पाद पीठ गणधर बिना का नहीं होता । जिस समय जो गणधर बड़ा होवे उस समय वह बैठे, बड़ा या छोटा जो भी उपस्थित होवे वह पूर्व द्वार से प्रवेश करके प्रभु को प्रदक्षिणा देकर और नमस्कार करके अग्निकोण में प्रभु के न तो अधिक दूर हो और न अधिक समीप इस प्रकार बैठे, एवं शेष गणधर भी प्रभु को नमस्कार करके बड़े गणधर के आस पास बैठें ।
आत्माराम जी - महाराज ! समवसरण का यह तो सारा ही अधिकार वांचने और मनन करने योग्य है, और वास्तव में तो सारा सूत्र ही भाष्य और टीका सहित बांचने तथा समझने योग्य है ?
भला महाराज ! इसमें प्रतिमा सम्बन्धी और भी कोई उल्लेख है ?
श्री रत्नचन्द जी—अरे भोले ! इसमें प्रतिमा सम्बन्धी लेखतो इतने हैं कि तुम बांचते २ आश्चर्यचकित हो जाओगे ? और वे हैं भी इतने सरल और स्पष्ट कि उनमें किसी प्रकार के ननु नच को स्थान ही नहीं रहता । लो इस समय तुमको केवल एक पाठ और बतला देता हूँ बाकी तुमने स्वयं देख लेने कारण कि तुम योग्य हो गये हो और स्वयं सब बातों को सोचने समझने की तुममें शक्ति है ।
आत्माराम जी हाथ जोड़कर - महाराज ! यह तो सब आप श्री की विशिष्ट कृपा का ही फल है । वास्तव में मैं तो बहुत सामान्य व्यक्ति हूँ ।
श्री रत्नचन्द्र जी - अच्छा इसमें से १७७४ की गाथा निकालो और वहां से पढ़ना आरम्भ करो ?
तब मुनि श्री रत्नचन्द जी की आज्ञानुसार महाराज आत्माराम जी ने वृहत्कल्प भाष्य की हस्तलिखित पुस्तक में से उक्तगाथा को निकाल कर पढ़ना आरम्भ किया । यथा
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