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________________ सन्त रत्न के समागम में समवसरण में एकतरफ तो प्रभु स्वयं विराजते हैं और बाकी तीनतरफ प्रभु की तीन प्रतिमायें बनाकर देवता बैठाते हैं जो कि प्रभु के अतिशय से प्रभु के समान ही दृष्टिगोचर होती हैं । इसबात का उल्लेख वृहत्कल्प भाष्य और आवश्यक नियुक्ति में प्रभुके समवसरण के वर्णन प्रसंग में किया है । श्री आत्माराम जी - महाराज ! आप उस पाठ की भी कृपा करो ? श्री रत्नचन्द जी - भाई ! अब समय अधिक हो गया है कल या और किसी दिन दोनों पुस्तकें निकाल कर उनमें से समवसरण सम्बन्धी पाठ को निकालकर मैं तुम्हारा निश्चय करा दूंगा । इतना कह कर दोनों महानुभाव अपने २ स्थान पर चले गये । दूसरे दिन जब श्री आत्माराम जी आये और विधिपूर्वक वन्दना नमस्कार करके बैठ गये तब श्री रत्नचन्दजी ने सप्रेम सुखसाता पूछने के अनन्तर कहा - लो ! ये रहा वृहत्कल्प भाष्य का पुस्तक, इसमें से निकालो वह प्रकरण । ३५ श्री आत्मारामजी - महाराज ! यह तो बहुत बड़ा है, अपने पास तो बहुत छोटा सा बृहत्कल्प है । श्री रत्नचन्दजी—हां भाई ! वह तो केवल मूलमात्र है और समवायांग सूत्र में जिस कल्पसूत्र का उल्लेख किया है एवं जिसमें समवसरण का सांगोपांग वर्णन है वह वृहत्कल्प यही है । यह पुस्तक मैंने क संवेगी साधु के भंडार से बड़ी कठिनता से प्राप्त किया है । आत्मारामजी ने मुनि रत्नचन्द जी के आदेशानुसार पाठ निकाल कर पढ़ना प्रारम्भ किया"याहिण पुव्वमहो, तिदिसिं पड़िवया य देवकया । जेट्टगणी अन्नोवा, दाहिण पुव्बे दूरम्मि ।। ११६३ ॥ जेते देवेहिं कया, तिदिसिं पडिवगा जिणवरस्स । तेसि पि तप्पभावा, तयागुरूवं हवड़ रूवं ।। ११६४ ।।" * व्याख्या–आयाहिण त्ति–भगवान् चैत्यद्रुमस्य प्रदक्षिणां विधाय पूर्वमुखः सिंहासनमध्यास्ते । यासु च दिक्षु भगवतो मुखं न भवति तासु तिसृष्वपि तीर्थंकराकार - धारकारिण सिंहासन - चामर - छत्र-धर्म Jain Education International * बृहत्कल्प भाष्य में समवसरण सम्बन्धी १८ गाथायें हैं [ ११७६ से १९६४ तक ] इनमें १६ गाथाओं में समवसरण सम्बन्धी अन्य विषयों का वर्णन करने के बाद अन्त की दो गाथाओं में प्रतिमाओं का उल्लेख किया गया है। "अथ किमिदं समवसरणं" ? इस प्रश्न के उत्तर में समवसरण का स्वरूप वर्णन करने वाली १८ गाथायें दी हैं जिनमें अन्त की १७/१८ दो गाथाओं में देवोंके द्वारा प्रतिष्टित की जानेवाली प्रभु प्रतिमाओं का वर्णन किया गया है। इसी प्रकार की गाथाओं का उल्लेख आवश्यक नियक्ति में किया है। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003203
Book TitleNavyuga Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayvallabhsuri
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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