________________
३४
नवयुग निर्माता
क्रम से समवसरण का स्वरूप जानना और कल्पभाष्य में कहा हुआ समवसरण का स्वरूप आवश्यक में कहे हुए समवसरण के स्वरूप से भिन्न नहीं है । तथा वाचनान्तर में पर्युषणा कल्प में कहे हुए क्रम से समवसरण का स्वरूप जानना। कहांतक जानना ? अब इसका स्पष्टीकरण करते हैं-पांचवें गणधर श्री सुधर्मा स्वामी सापत्य अर्थात शिष्य सहित और शेष गणधर निरपत्य-शिष्य बिना के मुक्ति को प्राप्त हुए, वहां तक समवसरण का स्वरूप समझना । यही बात नियुक्तिकार कहते हैं-नवगणधर तो श्रमण भगवान महावीर के जीते जी मोक्ष गये और इन्द्रभूति तथा सुधर्मास्वामी ये दो गणधर भगवान महावीर स्वामी के निर्वाण के बाद राजगृही नगरी में मोक्ष पधारे।
श्री रत्नचन्दजी-तुमने इस टीका पाठ का क्या परमार्थ समझा ?
आत्मारामजी-महाराज ! मैंने तो इसका यह परमार्थ समझा है कि समवसरण का यथार्थ स्वरूप देखने के अभिलाषी को कल्पभाष्य-[जो कि वृहत्कल्प भाष्य के नाम से प्रसिद्ध है ] और आवश्यक सूत्र एवं पर्युषणाकल्प, जो कि दशाश्रुत स्कन्ध के आठवें अध्ययन रूप है और जो मूर्तिपूजक परम्परा में कल्पसूत्र के नाम से विख्यात है-इन तीनों सूत्रों को देखना और मान्य करना चाहिये । इसके सिवा और कोई गति नहीं। समवायांग सूत्र के इस मूल पाठ से प्रामाणिक कोटि में परिगणित होने वाले इन तीनों सूत्रों को अमान्य रखने का अर्थ तो यह होता है कि हमारी ३२ सूत्रों की मान्यता भी केवल कथन मात्र है वास्तव में हम इनको भी नहीं मानते । और यदि वास्तव में विचार किया जाय तो श्री स्थानांग सूत्र में जो तीन प्रकार के प्रत्यनीक * कहे हैं वे हमारीसम्प्रदाय पर प्रत्यक्ष रूप में संघटित हो रहे हैं। तब इस प्रकार की आगम विरुद्ध मान्यता रखने वाले व्यक्ति या समुदाय को आराधक कहना या विराधक मानना इसका निर्णय तो आप जैसे गीतार्थ मुनि ही कर सकते हैं।
श्री रत्नचन्द जी-तुम्हारा यह कथन बिलकुल सत्य है परन्तु क्याकरें ? हमारे सम्प्रदाय वालों को जिन प्रतिमाका विरोध जो इष्ट हुआ ? अर्थात् जिन प्रतिमा के विरोध की दुर्भावना हमारे मन से निकल जाय तो सारा विवाद ही खतम हो जाता है।
आत्माराम जी-अच्छा महाराज ! यह तो सब ठीक परन्तु समवसरण में तो जिन प्रतिमा का कोई प्रसंग दिखाई नहीं देता फिर उसके विषय में इतनी हिचकचाहट क्यों ?
श्री रत्नचन्द जी चाहजी वाह ! तुमने तो ऐसी बात कही जैसे कोई समवसरण के स्वरूप से बिलकुल ही अनभिज्ञ हो ? मालूम होता है यह सब कुछ तुम जान बूझ करही कह रहे हो ? अच्छा कोई बात नहीं,लो सुनो
* सुयं पडुच्च तश्रो पडिणीया पं० तं० सुत्त पडिणीए, अत्थ पडिणीए, तदुभय पडिणीए'-(स्थानांग सूत्र)
भावार्थ- सूत्र के विरुद्ध सूत्र प्रत्यनीक, अर्थ के विरुद्ध आचरण करना अर्थ प्रत्यनीक और सूत्र तथा अर्थ इन दोनों के प्रतिकूल व्यवहार करना सूत्रार्थ प्रत्यनीक कहलाता है ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org