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________________ - सन्त रत्न के समागम में ३३ लिखने वाले श्री गन्धहस्ती प्राचार्य हुए हैं जिनका भाष्य गन्धहस्ती महाभाष्य के नाम से विख्यात है । परन्तु उसका तो अब केवल नाम ही सुनने में आता है श्री शीलांगाचार्य के समय में तो वह उपलब्ध था कारण कि श्री शीलांगसूरि ने अपनी टीका के आरम्भ में उस का उल्लेख किया है और उसी को अपनी व्याख्या का आधार बतलाया है। एवं उससे भी पहले चतुर्दश पूर्वधारी पंचम श्रुतकेवली श्री भद्रबाहु स्वामी ने श्रागमों की व्याख्या रूप निर्यक्तियों की रचना की है इन्हीं आगममूलक नियुक्तियों के अभिप्राय को स्पष्ठ करने के लिये आचार्य श्री गन्धहस्ती, श्री शीलांगाचार्य, श्री अभयदेवसूरि, श्री हरिभद्रसूरि और आचार्य श्री मलयगिरि आदि विद्वानों ने आगमों पर भिन्न भिन्न नाम से विशद विवेचन किये हैं । परन्तु हमारी सम्प्रदाय वाले तो इनमें से किसी एक को भी मान्य नहीं रखते, अधिक क्या कहूँ इन का तो बाबा आदम ही सबसे निराला है । अस्तु, अब तुम अन्य बातों को छोड़कर समवायांग सूत्र की प्रस्तुत गाथा की टीका के स्थल को निकालो और पढ़ो । देखें श्री अभयदेव सूरि ने “कप्पस्स समोसरणं णेयव्यं” की क्या व्याख्या की है। हमें तो वस्तुतत्त्व की खोज करनी है। श्री आत्मारामजी-बहुत अच्छा महाराज ! कहकर टीका के उक्त स्थलको निकाल कर पढ़ने लगे "एते च पूर्वोदिता अर्थाः समवसरणस्थितेन भगवता देशिता इति समवसरण वक्तव्यतामाह"तेणं कालेणं तेणं समएणं कप्पस्स समोसरणं णेय," इह णकारौ वाक्यालंकारार्थो अतस्ते इति प्राकृतत्वात् तस्मिन् काले सामान्येन दुपम सुषमा लक्षणे तस्मिन् समये विशिष्टे यत्र भगवान् एवं विहरतिस्मेति "कप्पस्स समोसरणं नेयव्यंत्ति" इहावसरे कल्प-भाष्य-क्रमेण समवसरण वक्तव्यता ज्ञेया सा चावश्यकोक्ताया न व्यतिरिच्यते । वाचनान्तरे तु पर्युषणा कल्पोक्त क्रमेणेत्यभिहितम्, कियद्रमित्याह-जावगणेत्यादि, तत्र गणधरः पंचमः सुधर्माख्यः सापत्यः शेषा निरपत्याः अविद्यमान शिष्य सन्ततय इत्यर्थः । “वोच्छिन्न त्ति" सिद्धा इति । परिनिव्वुया गणहरा जीयन्ते नापरा नव जणाउ । इंदभूइ सुहम्मो य रायगिहे निव्वुए वीरे" | भावार्थ-ये पूर्वोक्त अर्थ श्रमण भगवान महावीर स्वामी ने समवसरण में बैठकर कहे हैं, इस सम्बन्ध से समवसरण की वक्तव्यता अर्थात् स्वरूप कहते हैं-तेणं कालेणं तेणं समएणं कप्पस्स समोसरणं नेयव्वं" इत्यादि । यहां दोनों णंकार वाक्यालंकार में जानने। ते अर्थात तिस कालमें-सामान्यतया दुषम सुषम कालमें[चौथे बारे में और उस विशिष्ट समय में जिस समय भगवान इस प्रकार विचरते थे कल्पभाष्य में कहे हुए S शास्त्र परीक्षा विवरणमतिगहनं च गन्धहस्तिकृतम् । तस्मात् सुखबोधार्थ गृहाम्यहमंजसासारम् ॥३॥ [ अाचारांगसूत्र पृ० ३] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003203
Book TitleNavyuga Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayvallabhsuri
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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