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नवयुग निर्माता
आत्माराम जी पुस्तक को हाथ में लेकर - महाराज ! समवायांग सूत्र की इस हस्तलिखित सटीक प्रति अन्त में जो कुछ लिखा है पहले इसे आप सुनलें, बाकी की बात पर पीछे विचार करलिया जावेगा ।
श्री रत्नचन्द जी - अच्छा पहले उसी को सुनाओ ?
आत्माराम जी - तथास्तु बड़ी कृपा गुरुदेव ! वह पाठ इस प्रकार है"एकादशसु शतेष्वथ विंशत्यधिकेषु विक्रम समानाम् ।
हिल पाटक नगरे रचिता समवाय टीकेयम् ॥”
श्री रत्नचन्द जी - इस का भावार्थ भी तुम्हीं सुनाओ ?
आत्माराम जी - बहुत अच्छा कृपानाथ ! लो भावार्थ सुनो - इस श्लोक का अक्षरार्थ यह है कि मैंने विक्रम सम्बत् ११२० में हिल पाटक नाम के नगर में समवायांग सूत्र की यह टीका रची है। इसके अतिरिक्त इस टीका के रचयिता ने अपना नाम अभयदेवसूरि लिखा है और साथ ही अपनी गुरु शिष्य परम्परा का भी परिचय दे दिया है । यथा - श्री जिनेश्वरसूरि, श्री बुद्धिसागरसूरि और उनके गुरु श्री वर्द्धमानसूरि के नाम का उल्लेख किया है | इतना सुना चुकने के बाद श्री आत्माराम जी बोले – महाराज ! टीका के इस प्रशस्ति लेख से तो यही प्रमाणित होता है कि प्रस्तुत टीका के रचयिता श्री अभयदेवसूरि, हमारे पंथ के जन्मदाता श्री लौंका और लवजी से अनुमान चार सौ वर्ष पहले हुए हैं। इनका सत्ता समय वि० की बारवीं शताब्दी का आरम्भ है जब श्री लौंका और लवजी सोलवीं और अठारवीं शताब्दी में हुए हैं। इतनी प्राचीन प्रामाणिक टीका की अबहेलना करना मेरे विचार में या तो सरासर मूर्खता है या महान दुराग्रह । इसके अतिरिक्त जब हम एक तरफ श्री अभयदेवसूरि की प्रतिभा और विद्वत्ता को देखते हैं तथा दूसरी ओर श्री लौंका जी और लवजी का लिखा हुआ एक अक्षर भी नहीं देख पाते - [ जिससे कि उनकी ज्ञानसम्पत्ति का पता चल सके ] तब हमारा मन अपने मत के सम्बन्ध में जो कुछ सोचता है उसे व्यक्त करते हुए कृपानाथ ! मुझे तो अब लज्जा आती है पहले तो मेरा ख्याल था कि हर एक धार्मिक सम्प्रदाय का प्रवर्तक अर्थात् जन्मदाता चारित्रशील और विशिष्टज्ञानसम्पन्न व्यक्ति ही होता है या होना चाहिए परन्तु जब अपनी सम्प्रदाय के मूल पुरुषों की ओर ध्यान दिया जाता है तो यह कहने और मानने के लिये बाधित होना पड़ता है कि ज्ञान और चारित्रशून्य व्यक्ति भी मत-पंथ या सम्प्रदायों का सृजन कर सकते हैं।
श्री रत्नचन्दजी - भाई आत्माराम ! अकेले अभयदेवसूरि की ही क्या बात करते हो इन से भी पहले बहुत से श्राचार्यों ने आगमों पर विस्तृत भाष्य और टीकायें लिखी हैं। श्री अभयदेवसूरि से बहुत पहले श्री शीलांगसूरि ने आगमों पर टीकायें लिखी हैं उनकी टीकाओं में से इस समय केवल आचारांग और सुयगड़ांग इन दो आगमों की टीकायें ही उपलब्ध होती हैं, और इनसे भी बहुत पहले आगमों पर बृहत्काय भाष्य
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