SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 57
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३० नवयुग निर्माता २-इसके अतिरिक्त पूर्वाचार्यों के किये हुए नियुक्ति भाष्य और टीका आदि के बिना आगम-गत मूल पाठ के अर्थ का पता ही नहीं लगता, एक उदाहरण लीजिये ? समवायांग सूत्र में एक पाठ आता है "तेणं कालेणं तेणं समएणं कप्पस्स समोसरणं णेयव्वं जावगणहरा सावच्चा निरवच्चा वोच्छिन्ना" इसका परमार्थ पूर्वाचार्यों की व्याख्या की सहायता के बिना कुछ भी समझ में नहीं सकता। उक्त पाठ का अक्षरार्थ तो इतना ही प्रतीत होता है-कि उस काल और उस समय में कल्प का समोसरण जानना, जहां तक गणधर सापत्य-शिष्य सहित और निरपत्य-शिष्य रहित विच्छिन्न हुए। परन्तु इतने मात्र से इस सूत्र का कुछ भी परमार्थ समझ में नहीं आता । सूत्रगत "कप्पस्स समोसरणं" कल्प का समोसरण क्या वस्तु है ? और कल्प से यहां क्या अभिप्रेत है ? इसका उत्तर मूल बत्तीस सूत्रों में वर्षों ढूंढने पर भी नहीं मिलेगा। श्री रत्नचन्दजी-तभी तो मैंने पठन पाठन प्रारम्भ करते समय सब से प्रथम कहा था कि आगमों के अभ्यास में जबतक उनपर रचेगये पूर्वाचार्यों की नियुक्ति,भाष्य, चूर्णी और टीका आदि ग्रन्थों का विशेष आश्रय न लिया जावे तबतक आगमों का रहस्य प्राप्त होना दुर्लभ है और उनके पर्यालोचन में संस्कृत प्राकृत के विशिषज्ञान के अतिरिक्त व्याकरणादि अन्य शास्त्रों का ज्ञान भी अपेक्षित है । सो उसकी ओर तो हमारे मत वाले ध्यान ही नहीं देते। आत्मारामजी-न महाराज ! केवल ध्यान नहीं देते इतना ही नहीं किन्तु उसका भरसक विरोध भी करते हैं। और व्याकरण को व्याधिकरण कहते हैं । मैं एक वक्त जयपुर में गया तो मुझे एक दो कट्टर ढूंढक पंथी श्रावकों ने कहा कि आप ने व्याकरण हरगिज़ न पढ़ना । यदि पढ़ोगे तो तुम्हारी श्रद्धा बिगड़ जावेगी और जिनमत पर से आस्था उठ जावेगी । महाराज ! क्या कहूँ न जाने उनके इन वचनों का मेरे हृदय पर कैसे प्रभाव पड़गया ? मैं भी इसी विचार का बनगया और कई वर्षों तक इस मूर्खता का शिकार बना रहा जिसका मुझे अधिक से अधिक पश्चाताप होता है । मैं उन दिनों यह सोच भी नहीं सका कि इन लोगों का यह उपदेश मेरी ज्ञान प्रगति में एक बड़ी से बड़ी रुकावट है । परन्तु सौभाग्यवश जब मुझे एक विद्वान् का सहयोग प्राप्त हुआ और मैंने उनके सदुपदेश से व्याकरण का अध्ययन शुरु किया तथा शब्दार्थ का बोध होने पर जब मैंने अपने पहले रटे हुए सूत्र-पाठों के अर्थ पर ध्यान दिया तो मुझे आश्चर्य ही नहीं किन्तु घृणा भी हुई, अपनी प्रगाढ़ मूर्खता पर ध्यान देते हुए मुझे मन ही मन बहुत लज्जित होना पड़ा । यदि मैं कुछ समय पहले ही व्याकरण आदि का अभ्यास प्रारम्भ कर देता एवं न्याय तथा काव्यकोशादि का अभ्यास कर लेता तो मैं इतने दिन तक इस मिथ्या भ्रमजाल में फंसा न रहता। __ श्री रत्नचन्द जी-अब इन बातों की चर्चा करना व्यर्थ है, संसार में यह कहावत प्रसिद्ध है कि "सुबह का भूला हुआ यदि शाम को घर आजावे तो वह भूला नहीं कहा जाता" सत्य की ओर बढ़ी हुई तुम्हारी तीब्र जिज्ञासा ने इधर उधर भटकने के बाद अन्त में सन्मार्ग के द्वारपर लाकर खड़ा कर ही दिया । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003203
Book TitleNavyuga Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayvallabhsuri
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy