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________________ सन्त रत्न के समागम में आत्मारामजी—हां महाराज ! मैंने भी जहां तक विचार किया है, मुझे भी ऐसा ही भान होता है । आगम ग्रन्थों के सम्यग् अभ्यास से मैं तो अब इसी नतीजे पर पहुँचा हूँ कि अपने मत वाले जो यह कहते हैं कि हम केवल ३२ सूत्रों को मानते हैं, वह भी मूल सूत्रों के मूलार्थ मात्र को, न कि उनपर व्याख्या रूप से रचे गये पूर्वाचार्यों के निर्युक्ति, भाग्य, चूर्णी और टीका आदि के अर्थों को भी मानते हैं । परन्तु इसपर कु गम्भीरता से विचार करता हूँ तो उनका यह कथन कोरा कथन मात्र ही है, जानते हुए : भी व्यवहार में तो बे इनको भी नहीं मानते | श्री रत्नचन्द जी - जानते हुए भी, वह कैसे ? जरा इसको स्पष्ट करो ? आत्मारामजी - महाराज ! आप स्वयं सब कुछ जानते हुए भी मुझ से पूछ रहे हैं ? इसमें तो कोई रहस्य छिपा हुआ मालूम देता है । मैं जहां तक समझा हूँ आप अपने शिष्य की परीक्षा ले रहे हैं कि इसको जो कुछ पढ़ाया गया है उसका परिणमन इसके हृदय में कैसा और कहां तक हुआ है ? २६ श्री रत्नचन्द जी - हां भाई ! पूछा तो इसी विचार से है । जैसे पिता पुत्र को अपने से अधिक देखना चाहता है उसी प्रकार विद्यागुरु भी अपने शिष्य को अपने से अधिक ज्ञानवान और अधिक विचारसम्पन्न देखने की इच्छा रखता है । आत्मारामजी - यदि आप श्री की ऐसी भावना है तो लो मैं यथामति वर्णन करता हूँ १ – श्री भगवती सूत्र ३२ सूत्रों में से एक है उसमें द्वादशांगी गरिणपिटक का संक्षेप से नामोल्लेख कर के अन्य सब अंगों के लिए श्री नन्दीसूत्र के नाम का संकेत करते हुए सूत्रार्थ करने के जो तीन प्रकार बतलाये हैं। $ उसको हम या हमारे पंथ वाले कहां स्वीकार करते हैं ? जब हम लोग निर्युक्ति को ही मान्य नहीं रखते तो नियुक्ति मिश्रित और निर्विशेष अर्थ का ज्ञान ही कैसे होगा ? इसलिये ३२ सूत्रों की मान्यता भी केवल कथन मात्र है । $ “भगवती सूत्र का वह पाठ इस प्रकार है- कई विहें भंते! गणिपिडए पन्नते, गोयमा ! दुबालसंगे गणिपिडए पन्नत्ते तं जहा - श्रायारो जाव दिट्ठीवाम्रो, से किं तं श्रायारो ? श्रायारेणं समरणारा निगंधारणं श्रायार गो० एवं अंगपरूवणा भागियव्वा जहा नन्दीए जात्र सुत्तत्त्थो खलु पढमो, वीश्रो निजुत्ति - मीसियो भणियो, तोय निवसेसो एस विही होइ अग्रोगे" ( शतक - २५ उद्देश - ३ ) "सुत्तस्थो खलु पढ़मो" - इत्यादि गाथा नन्दीसूत्र में भी इसी प्रकार थाती है । इसका संक्षिप्त भावार्थ यह हैप्रथम सूत्रार्थ देना, पीछे नियुक्ति मिश्रित पाठ देना, तदनन्तर निर्विशेष अर्थात् सम्पूर्ण अर्थ देना । यह तीन प्रकार की सूत्रव्याख्या का निर्देश मूल सूत्र में किया गया है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003203
Book TitleNavyuga Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayvallabhsuri
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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