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नवयुग निर्माता
प्रिय आत्माराम ! तुम कहां २ विचरे ? क्या २ अध्ययन किया ? विहार यात्रा में तुम किन २ विद्वानों के संसर्ग में आये ? वहां से तुमको क्या अनुभव मिला ? अपनी सम्प्रदाय के आचार विचारों के सम्बन्ध में तुम्हारी निश्चित धारणा क्या है ? तुमने इनके विषय में कभी स्वतंत्ररूप से स्वयं भी उहापोह किया है ? और उस उहापोह से तुम किस निश्चय पर पहुँचे ? इत्यादि सभी बातों का स्पष्ट शब्दों में उत्तर दो ? तब श्री आत्माराम जी ने अपने दीक्षा काल से लेकर आगरे पहुँचने तक अपनी सारी जीवनचर्या को विगतवार कह सुनाया जिसमें जीवन की बाह्य और अन्तरंग दोनों परिस्थितियों का विशद वर्णन था। ऊपर उल्लेख किये गये इन के संक्षिप्त स्वरूप से पाठक तो सुपरिचित ही हैं।
श्री आत्माराम जी की रहस्य पूर्ण जीवनचर्या की कहानी को सुनकर श्री रत्नचन्दजी बड़े प्रसन्न हुए और उनको गले लगाते हुए गद्गद् वाणी से बोले कि आज मेरी चिरकाल से मुआई हुई आशा-लता को पल्लवित और पुष्पित होने का सुनिश्चित सद्भाग्य प्राप्त हुआ। मुझे तुम्हारे जैसे प्रतिभाशाली सत्यगवेषक की ही आवश्यकता थी। आत्म-दौर्बल्य तथा अन्य कतिपय अनिवार्य प्रतिबन्धों से जो विचार मेरी मानसपरिधि से बाहर नहीं निकलने पाये उन्हें तुम्हारे सहयोग से किसी दिन विश्व में प्रसारित होने का सुअवसर प्राप्त होगा ऐसा मुझे पूर्ण विश्वास है। इसलिये आज से मैं अपना कोई भी हार्दिकभाव तुमसे छिपाये नहीं रखूगा और धर्म सम्बन्धी प्रत्येक विषय के यथार्थ स्वरूप को स्पष्ट शब्दों में तुम्हारे सन्मुख उपस्थित करने का यत्न करूंगा। तुम्हारे जैसे सत्य गवेषक योग्य अधिकारी का मिलना यदि असम्भव नहीं तो कठिन अवश्य है।
श्री आत्माराम जी हाथ जोड़ कर बड़ी नम्रता से-महाराज ! आपकी इस अनन्य कृपा का मैं बहुत २ आभारी हूँ । इससे बढ़कर मेरा सद्भाग्य और क्या हो सकता है जो आप जैसे महापुरुष मेरे जैसे साधारण व्यक्ति पर इतना प्रेम दर्शा रहे हैं। मेरे जैसे शिष्य तो अनेक मिलेंगे परन्तु आप जैसे उदार चित्त विशिष्टज्ञानवान विद्यागुरुओं का मिलना नितान्त कठिन है । आप ही के पास ज्ञानाभ्यास करते हुए मुझे जो आनन्द प्राप्त होता है उसे शब्दों में व्यक्त करना मेरी शक्ति से बाहर है।
इसके बाद प्रतिदिन के एकान्त सत्संग में विवादास्पदीभूत हर एक विषय की शास्त्रीय चर्चा हुआ करती दोनों महानुभाव मन से एक दूसरे के अधिक समीप आगये । इसलिये जो भी वार्तालाप होता खुले दिल से होता, और उसमें तात्त्विक विवेचन के साथ साथ विनोद की भी पर्याप्त मात्रा रहती।
स्वमत के सिद्धान्तों का पर्यालोचन करते समय कभी कभी आपका परस्पर बड़ा मनोरञ्जक वार्तालाप होता-जिसका महाराज श्री के मुखारविन्द से सुना और स्मृतिपट पर रहा हुआ सारांश इस प्रकार है
श्री रत्नचन्दजी-भाई आत्माराम ! वास्तव में अपने हैं तो लौंका और लवजी के, मगर जबरदस्ती से महावीर के बन रहे हैं । यदि निष्पक्ष होकर विचार करें तो अपनी वेषभूषा और आचार विचार सब भगवान महावीर द्वारा निर्दिष्ट मार्ग से विपरीत ही जान पड़ते हैं।
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