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________________ सन्त रत्न के समागम में आपको बौद्धिक विकास और मानसिक स्थिरता दोनों ही उपलब्ध हुए। सुव्यवस्थित शास्त्रीय-बोध और असंदिग्ध मनोवृत्ति यही तो दो जीवन निर्माण के आधार स्तम्भ हैं ? इन्हीं के आधार पर आध्यात्मिक जीवन के भव्यप्रासाद का सुचारु निर्माण सम्पन्न होता है। __ श्री आत्माराम जी ने मुनि श्री रत्नचन्द जी का नाम तो बहुत दिनों से सुन रक्खा था परन्तु उनके दर्शन का सौभाग्य उनको इससे पहले प्राप्त नहीं हुआ था इधर मुनि श्री रत्नचन्द जी भी श्री आत्माराम जी के नाम से तो परिचित थे, और उनको मिलने की उनके मनमें अभिलाषा थी मगर इसके लिये वे विवश थे। दोनों ओर से जागृत हुई अभिलाषाओं की पूर्ति उनके आपस के मिलाप में निहित थी जो कि समय सापेक्ष्य था । शारीरिक अथवा मानसिक कोई भी कार्य क्यों न हो उसकी निष्पत्ति समय की अपेक्षा रखती है । अन्य सभी कारण-सामग्री के रहते हुए भी समय से पहले कोई भी कार्य निष्पन्न या सफल नहीं हो सकता इसी प्रकार उक्त दोनों मुनिजनों की चिरंतन शुभ अभिलाषाओं की पूर्ति का समय जब निकट आया तो दोनों सक्रिय हो उठी-एक गति रूप में दूसरी आकर्षणरूप में, मिलन की भावना दोनों में है फलस्वरूप जीरा से चलकर श्री आत्माराम जी आगरे पहुँचे और आगरे में विराजे हुए मुनि श्री रत्नचन्दजी ने उनका सहर्ष स्वागत किया। दोनों मुनियों ने एक दूसरे का साधु स्वागत करते हुए मानसिक आलिंगन द्वारा अपनी चिरन्तन मिलन की अभिलाषा को एक दूसरे के सहयोग से पूर्ण करने के साथ २ अपूर्व शान्तरस का स्थायी अनुभव प्राप्त किया। मुनि श्री आत्माराम जी चाहते थे कि उन्हें कोई शास्त्र निष्णात उदारात्मा योग्य विद्यागुरु मिले और इधर मुनि श्री रत्नचन्द जी भी चाहते थे कि उन्हें कोई सुयोग्य पात्र विद्यार्थी मिले जिस में वे अपने चिरकालार्जित विद्याधन को प्रतिष्ठित करके कर्तव्य भार से मुक्त हों । समय आया दोनों के शुभ मनोरथ पूरे हुए । आत्माराम जी को अभिलषित विद्यागुरु मिल गये और श्री रत्नचन्दजी को मनोनीत विद्यार्थी की प्राप्ति हो गई। दोनों के मिलाप ने सोने पर सुहागे का काम किया जिसकी फल श्रुति का उल्लेख जैन परम्परा के इतिहास में सुवर्णाक्षरों से किया जायगा। मुनि श्री रत्नचन्द जी ने श्री आत्माराम जी को निम्नलिखित शास्त्रों का मननपूर्वक सुचारुरूप से परावर्तन कराया-आचारांग. स्थानांग, सूत्रकृतांग, समवायांग, व्याख्याप्रज्ञप्ति, प्रज्ञापना, नन्दी, वृहत्कल्प, व्यवहार, निशीथ, दशाश्रुतस्कन्ध, षट्कर्मग्रन्थ, संग्रहणी, क्षेत्रसमास, सिद्ध पंचाशिका, सिद्धपाहुड़, निगोद छत्तीसी पुद्गल छत्तीसी, लोकनाडी द्वात्रिंशिका और नयचक्रसार आदि । __इन ग्रन्थों के पठन पाठन के समय दोनों महानुभावों में तात्त्विक विषयों से सम्बन्ध रखने वाले विचार विनिमय में अनेक प्रकार की नई २ वाते सन्मुख आती और उनका सन्तोषजनक समाधान होता । और कभी २ विनोदपूर्ण चर्चा भी होती । जब तक गुरु शिष्य की परीक्षा नहीं कर लेता, उसके हृदय को अच्छी तरह से टटोल नहीं लेता तब तक उसके सन्मुख वह अपना हार्द प्रकट नहीं करपाता । पठन पाठन और विचार विनिमय करते कराते कुछ समय बीत जाने के बाद एक दिन मुनि श्री रत्नचन्द जी ने कहा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003203
Book TitleNavyuga Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayvallabhsuri
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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