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________________ अध्याय ५ सन्त-रत्न के समागम में चातुर्मास के समाप्त होते ही जीरा से आपने आगरा की ओर प्रस्थान किया। अब आप किसी ऐसे विद्वान् मुनि की खोज में थे कि जो शास्त्र निष्णात होने के अतिरिक्त उदार मनोवृत्ति का भी हो । और वस्तु तत्त्व के स्वरूप को उसके अनुरूप ही वर्णन करना अपना साधु जनोचित कर्तव्य समझता हो। धर्मोपजीवी सम्प्रदायों में कतिपय ऐसे विद्वान साधु भी देखने में आते हैं कि जो वस्तु तत्त्व के यथार्थ स्वरूप को भलीभांति समझते और उस पर आन्तरिक श्रद्धान रखते हुए भी व्यक्त रूप से सर्व साधारण में उसका प्रचार करने के लिये अपने आपको सर्वथा असमर्थ पाते हैं परन्तु यदि कोई योग्य अधिकारी सच्ची जिज्ञासा को लेकर उनके सन्मुख उपस्थित होता है तो उसके सामने वे अपना हृदय स्पष्ट रूप से खोल देते हैं । उस समय उन्हें तनिक भी संकोच नहीं होता, संकोच भी क्यों हो ? जब कि वे ऐसे समय की प्रतीक्षा कर रहे हों। स्थानकवासी सम्प्रदाय में उस समय के विद्वान साधुओं में श्री मनोहरदासजी के समुदाय-टोले के वृद्ध पंडित मुनि श्री रत्नचन्दजी का नाम उक्त प्रकृति के विद्वानों में विशेष उल्लेखनीय है । आप जैनागमों के अच्छे अभ्यासी थे और अागमों के प्राचीन भाष्य और टीकादि में स्फुट किये गये अर्थों को ही यथार्थ समझते और उन पर आस्था रखते थे। दूसरे शब्दों में उनका बाह्य आचार व्यवहार तो ढूंढ़क पंथ का ही था परन्तु अन्तरंग तो उनका प्राचीन शुद्ध सनातन जैन परंपरा के शास्त्रीय आचारों का ही अनुगामी था। ___ इधर जीरा से विहार करके ग्रामानुग्राम विचरते हुए श्री आत्मारामजी आगरे में पहुंचे । आगरे में आने का उनका उद्देश्य था मुनि श्री रत्नचन्दजी के सहवास में कुछ समय रहकर ज्ञानाभ्यास में प्रगति करना और अपने सन्देह-दोलायित मानस को एक केन्द्र पर स्थिर करना। इसके लिये आगरे का चतुर्मास आपके जीवन में सबसे अधिक महत्वपूर्ण प्रमाणित हुआ। मुनि श्री रत्नचन्द जी के पुण्य सहवास में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003203
Book TitleNavyuga Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayvallabhsuri
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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