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नवयुग मित
मुनि श्री आत्माराम जी के शुभागमन की खबर मिलते ही जीरा की जनता वर्षाकालीन नदी के वेग की भांति आपके दर्शनों के लिये उमड़ पड़ी। नगर के सैंकड़ों स्त्रीपुरुष आपका स्वागत करने के लिये एक से आगे एक होकर पहुँचे । सबने नतमस्तक होकर आपका सप्रेम स्वागत किया और आपके पुनीत दर्शनों से अपने को कृतकृत्य किया। सब के साथ आप थानक - उपाश्रय में पधारे तथा पाट पर विराजमान होकर सबको धर्म का उपदेश दिया जिसे सुनकर श्रोतालोग आनन्द से विभोर हो उठे ! आपके वचनामृत का पान करके श्रोताओं की चिरकाल से मुझाई हुई आशालता फिर से पल्लवित हो उठी।
कन्धे से कन्धा भिड़ाकर चलने वाले और आपके साथ खेल कूद में पूरा हिस्सा लेने वाले आपके मित्रगण आपका हाथ पकड़ कर चलने के स्थान में अब आपके पुनीत चरणों में अपना मस्तक रख देने में अपना परम सौभाग्य समझने लगे ! एवं गोदी में उठाने तथा सप्रेम मस्तक चूमने वाले और पिता से भी अधिक लाड़ प्यार करने वाले आपके धर्म पिता योधामल और आपके साथ खेल कूद की स्पर्धा में उतरने वाला उनका परिवार आज आपकी चरण धूली को अपने मस्तक पर चढाने में ही अपना अहोभाग्य समता है ।
इस समय जीरा की जनता को श्री आत्मारामजी दो स्वरूपों में अवभासित होने लगे, एक स्मृतिगोचर दूसरा प्रत्यक्ष अनुभव में आने वाला । स्मृति - गोचर वह जिसने जन्म से लेकर १६ वर्ष की आयु तक लहरा और जीरा को अपने जीवन की क्रीड़ास्थली बनाया, दूसरा वह जिसे इस समय सब धर्मनेता के रूप में प्रत्यक्ष देख रहे हैं । पहला मित्रों के स्नेह का पात्र और दूसरा उनकी श्रद्धा का भाजन है। पहले की आत्मा प्रसुप्त और दूसरे की प्रबुद्ध एवं पहला चलप्रज्ञ था जब कि दूसरा स्थितप्रज्ञ है । परन्तु मेरी दृष्टि में तो यह विभिन्नता वास्तविक नहीं किन्तु व्यावहारिक है । सत्तारूप से तो आत्मा एक अथच अभिन्न है, हां ! बाह्य व्यवहार को लेकर उसमें विभिन्नता की कल्पना भी की जा सकती है, मगर उससे आत्मगत ऐक्य में कोई बाधा नहीं आती और जैन सिद्धान्त के अनुसार तो प्रत्येक वस्तु सामान्य और विशेष उभयरूप है उसमें रहा सामान्य धर्म एकता का बोधक है जब कि विशेष धर्म उसकी विभिन्नता का परिचायक है । इसलिये नाम
वस्था विशेष की दृष्टि से देखी गई वस्तु विभिन्न प्रतीत होती है और सामान्यग्राही दृष्टि से आत्मसत्ता के विचार से एक अथच अभिन्न है । अतः भेद और अभेद ये दोनों ही सापेक्ष्य हैं ऐकान्तिक नहीं ।
लगभग दश वर्ष के अन्तर में श्री आत्मारामजी का जीरा में पधारना - जहां कि आपका आरम्भिक जीवन गुजराहो, वहां की जनता के लिये बड़ा ही हर्षोत्पादक और उत्साहवर्द्धक था । आपने वहां की श्रद्धालु जनता के सप्रेम आग्रह से १६१६ का चतुर्मास यहीं पर किया । जीरा के इस चतुर्मास में मुनि श्री आत्मारामजी को जैन परम्परा के विशुद्ध स्वरूप और उसके अनुरूप आचरणीय साधु वेष एवं धर्म सम्बन्धी
न्य तात्त्विक विषयों की छानबीन करने तथा व्याकरणादि शास्त्रों के अभ्यास में अधिक प्रगति करने का पर्याप्त अवसर मिला । फलस्वरूप, वस्तु तत्त्व के याथर्थ निर्णय की ओर मन्दगति से प्रस्थान करने वाली जिज्ञासा में फिर से
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