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________________ - जिज्ञासा पूर्ति की ओर २३ करते समय मार्ग में उपस्थित होने वाली विकट बाधाओं को परास्त करने एवं मार्ग विरोधी कांटों को निर्मूल करने में जिस वीरोचित साधु साहस का परिचय दिया उसका वर्णन यथावसर किया जायगा। रोपड़ में प्राप्त हुई व्याकरण सम्बन्धी ज्ञान विभूति को हृदय की पुनीत गुफा में सुरक्षित कर लेने के बाद अब आपने अपने बालपन की क्रीड़ास्थली जीरा नगरी की ओर प्रयाण करने का निश्चय किया। मालेर कोटला पहुंचने पर आपने अपने गुरु श्री जीवनरामजी से भेट की। यहां से जीवनरामजी तो राणिया में चतुर्मास करने के लिये उधर को विहार कर गये आपने सुनाम को विहार कर दिया । सुनाम में पहुंचने पर आपको एक शिष्य की उपलब्धि हुई । यहां पर केवल शास्त्राभ्यास के लिये आपके पास रहे हुए पूज्य अमरसिंहजी के शिष्य विश्नचन्द और रामबक्ष आदि साधुओं ने आपसे आज्ञा लेकर अपने गुरु के पास जाने के लिये मारवाड़ की ओर विहार कर दिया और आप समाणा, पटियाला, नाभा, रायकोट और जगरावां आदि नगरों में विचरते हुए जीरा में पधारे । जीरा की विरह कातरा भूमि को प्रोषित भर्तृ का सन्नारी की भांति अपने स्वामी का लगभग दश वर्ष जितने लम्बे समय के बाद स्वागत करने का यह पहला ही पुण्य अवसर प्राप्त हुआ। और उसने सजल नेत्रा विरहिणी की तरह अपने प्रियतम के स्वागत में जिस मूकप्रेम का परिचय दिया वह सचेतन जगत के वाचाल प्रेम से कहीं अधिक मूल्यवान था। इधर अपनी क्रीडास्थली में पादन्यास करते समय मुनि श्री आत्मारामजी के विरक्त हृदय में भी सहसा किसी अलौकिक-अनुराग का संचार होने लगा । उन्हें ऐसा आभास होने लगा कि मानो कोई उनको अतीत की याद दिलाते हुए अपनी ओर आने और सप्रेम आतिथ्य स्वीकार करने का मूक संकेत कर रहा है । इस मूक संकेत में रही हुई सजीव प्रेरणा ने मुनि श्री आत्मारामजी को कुछ समय के लिये अपनी ओर आकर्षित करने में सफलता प्राप्त करली, अब आपके उदार मन में अपने बाल जीवन की क्रीड़ास्थली मातृभूमि का प्रसुप्र स्नेह कुछ क्षणों के लिये फिर सजग होउठा । और अतीत के गर्भ में छिपी हुई जीवन की अनेक रहस्य पूर्ण घटनाओं के रेखाचित्र स्मृतिपट पर उभरने लगे। जिनके मोहक स्वरूप से आकर्षित हुआ आपका आत्मा किसी दूसरे ही लोक में विचरने लगा। यह मित्रों के साथ घूमना, यह हरे २ खेतों के दृश्य, यह नदी में तैरना, यह नदी में डूबते हुए मां बेटे को बचाने के लिये नदी में कूदना, यह पृथवी में अंगुलियों से बनाये गये रेखाचित्र, यह ताश की रचना, यह मित्र गोष्टी का नेतृत्व, यह धर्म पिता जोधेशाह का स्नेह भरा आलिंगन, यह दीक्षा के विचार, प्रत्यक्ष में उनका उत्कट विरोध, और यह है मातृस्नेह और उसका अटूट बन्धन इत्यादिक अतीत कालीन जीवन घटनाओं का स्मृतिलोक में अनुभव करते करते जब मनोवृत्ति में आत्मजागरण का उदय हुआ तो यह सब कुछ आपात रमणीय और क्षणिक मनोराज्य के सिवा और कुछ भी प्रमाणित न हुआ इसलिये ज्ञान सम्पन्न मुनि श्री आत्मारामजी अपने साथी साधु वर्ग के साथ चिरकाल से अनाथ बनी हुई जीरा नगरी को सनाथ बनाने के लिये आगे बढ़े। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003203
Book TitleNavyuga Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayvallabhsuri
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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