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नवयुग निर्माता
यहां इतना स्मरण रहे कि विहार में और चतुर्मास में शास्त्र स्वाध्याय और पठन पाठन का कार्य आपका निरन्तर चालू रहता था, विहार में कुछ कम और वर्षावास में अधिक । स्वयं स्वाध्याय करना और साथ के साधुओं को पढ़ाना यह आपका नियमबद्ध दैनिक कार्यक्रम था।
दिल्ली के चतुर्मास में आपने पंजाब के पूज्य श्री अमरसिंह जी के शिष्यों श्री मुस्ताकराय और हीरालाल जी आदि को स्थानांग प्रभृति आठ शास्त्रों का अध्ययन कराया और स्वयं भी अन्य लौकिक शास्त्रों के स्वाध्याय में संलग्न रहे।
चौमासे के बाद दिल्ली से विहार करके सोनीपत्त, पानीपत्त आदि से होते हुए श्राप करनाल पधारे, यहां पर पूज्य अमरसिंह जी के चेले श्री रामबक्ष, सुखदेव, विशनचंद और चम्पालाल जी आदि
आप से मिले । यहां आपने श्री विशनचन्द और रामबक्ष जी को अनुयोगद्वार सूत्र का अध्ययन कराया। वहां से आप अम्बाले पधारे, यहां कुछ दिन निवास करके आपने माछीवाड़े की ओर विहार किया, रास्ते में खरड़ और रोपड़ में कुछ समय निवास किया। इस यात्रा में भी बिशनचन्द और रामबक्ष आदि साधु
आपके साथ ही रहे और अभ्यास करते रहे इस अभ्यास में इन्होंने आचारांग-जीवाभिगम और नन्दीसूत्र को आपसे पढ़ा।
रोपड़ में श्री सदानन्द नाम के एक अच्छे विद्वान थे, व्याकरण शास्त्र में उनकी अच्छी गति थी। इसके अतिरिक्त वे सरल स्वभावी और सज्जन पुरुष थे। उनके पास श्री आत्माराम जी ने व्याकरण का अध्ययन प्रारम्भ किया। पंडित सदानन्द जी की सप्रेम पढ़ाने की अभिरुचि और प्रतिभासम्पन्न आत्माराम जी की ग्राहक शक्ति दोनों ने मिलाकर सोने पर सुहागे का काम किया। दोनों के मिलाप से वर्षों का काम महीनों में संपूर्ण हुआ। श्री अनुभूति स्वरूपाचार्य के आशुबोधदायक सरल व्याकरण के सम्यग् अध्ययन से श्री आत्माराम जी के हृदय में एक प्रकाश बहुल नवीन ज्ञानज्योति का उदय हुआ जिसके लिये आप चिरकाल से लालायित थे। स्वच्छ दर्पण में यथावत् प्रतिबिम्बित होने वाले मुखादि अवयवों की भांति व्याकरण के आलोक से पालोकित हुए आपके हृदय में अब शब्दों के वास्तविक अर्थ स्फुट रूप से आभासित होने लगे । तब व्याकरण के अभ्यास से प्राप्त हुए स्वल्प प्रकाश में उत्तरोत्तर प्रगति करने की भावना से प्रेरित होकर आपने इस ओर और भी तीब्रगति से प्रस्थान करना आरम्भ कर दिया। जहां कहीं भी कोई शास्त्र निष्णात विद्वान् मिला वहीं पर आपने उससे पढ़ना आरम्भ किया और जीवन में तब तक विश्राम नहीं किया जबतक कि जिज्ञास्य विषय में रही हुई जिज्ञासा की पूर्ति नहीं हो पाई। फल स्वरूप जैन परंपरा के प्राकृत संस्कृत वाङ्मय के पारगामी होने के अतिरिक्त वैदिक परंपरा के विशाल साहित्य-समुद्र के अवगाहन में भी
आपकी व्य पक शेमषी को अव्याहत गति प्राप्त हई । इस का प्रत्यक्ष उदाहरण वह विशाल ग्रन्थ राशि है जिसके सृजन का श्रेय आपकी प्रवीण लेखिनी को प्राप्त हुआ। इसके अतिरिक्त व्यापक शास्त्रीय बोध से प्राप्त हुए निर्मल प्रकाश में आपने धर्म प्राण साधु जीवन का जो सुमार्ग निर्धारित किया, उसपर आरूढ़ होकर प्रस्थान
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