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तथ्य गवेषणा की ओर
गई ! विवेक की इतिश्री होगई ! "आप व्याकरण नहीं पढ़ना आपकी बुद्धि बिगड़ जावेगी। क्या इस से बढ़कर भी मूर्खता और बुद्धि हीनता की कोई जीती जागती मिसाल हो सकती है ? यह तो ऐसी ही बात है जैसे कोई किसी से कहे कि तुम अमृत मत पीना यदि पीओगे तो मर जाओगे ! पर उनसे भी बढ़कर मूर्ख और विचारशून्य तो मैं निकला, जिसने उनके सर्वथा अहितकर उपदेश को परम हितकारी समझकर ऐसी मुट्ठी में बान्धा कि जिसके आगे बन्दर की मुट्ठी भी हार मान जाय ! तो फिर इसे मैं अपनी बुद्धिमत्ता समझं या नितान्त मूर्खता ? एवं इसकी भूरि भूरि प्रशंसा करू या सतत
निन्दा ? यह भी एक विचारणीय समस्या है। ५--इतने में स्मृति पथ पर आई हुई अन्तर्ध्वनि को जैसे कोई सजग होकर सुने–“यदि आप व्याकरण का
अध्ययन करने के बाद जैनागमों का-उनके भाष्य और टीका आदि के साथ अभ्यास करें तो आपको बहुत लाभ होगा, और पदपदार्थ का यथार्थ निर्णय भी आपके लिये सुकर हो जायगा ! एवं-"तुम प्रतिभाशाली हो आत्माराम ! मेरे पास कुछ समय रहकर तुम व्याकरण-चन्द्रप्रभा पढ़ो ! इससे तुम को पदार्थ ज्ञान में बहुत सहायता मिलेगी !” पटवा श्री वैद्यनाथ और मुनि श्री फकीर चन्द जी की जीवन में विकास और उल्लास को उत्पन्न करने वाली सुधातुल्य इस हितशिक्षा का अनादर करने का ही यह परिणाम है कि आज मैं तथ्य निर्णय में 'किं कर्त्तव्य विमूढ़' बनकर आत्मवंचना का भाजन बन रहा है। अस्तु अब तो श्यामसुन्दर के अनन्य भक्त सूर कवि की "सूरदास गुजरी सो गुजरी बाकी तहीं संभार" इस प्रवरोक्ति को ध्यान में रखते हुए तथ्यगवेषणा की ओर प्रस्थान करने में पाथेय रूप व्याकरण के पठन पाठन में प्रवृत्त होना यही मेरा मुख्य कार्य होगा। यह थी आत्माराम जी की विवेक प्रवीण मनोवृत्ति में प्रतिबिम्वित होने वाली-विचार सन्तति, जिससे उनकी आस्था को जबरदस्त धक्का लगा
और उसका दृढ़ सिंहासन अपने स्थान से हिल गया ! अब उन्हें जैन धर्म से अपनी सम्प्रदाय कुछ विभिन्न प्रकार की प्रतीत होने लगी । जैनधर्म के प्राचीन आदर्श और उसके शास्त्रीय सिद्धान्तों में जितनी स्वच्छता दृष्टिगोचर हुई उससे अधिक धुंधलापन उन्हें अपने मत में नजर आने लगा। ऐसी दशामें सहसा उनके मुख से निकल पड़ा
तब लग धोवन दूध है, जब लग मिले न दूध ।
तब लौं तत्त्व अतत्त्व है, जब लौं शुद्ध न बूध ।। अर्थात ज्ञान विधुर मनुष्य को जब तक दूध नहीं मिलता तब तक वह धोवन-(लस्सी वगैरह) को ही दूध समझता है और उसके स्वाद की प्रशंसा करता रहता है । एवं दुग्ध के प्राप्त होने पर जब उसे दुग्ध में रहे हुए अपूर्व माधुर्य और स्वच्छता का अनुभव होता है तब उसे धोवन के असली रूप का पता चलता है इसीप्रकार मानव में जबतक विवेक प्रधान शुद्ध बुद्धि का स्फुरण नहीं होता तब तक उसका जाना हुआ तत्त्व वास्तविकता से बहुत दूर होता है और वह अतत्त्व को ही तत्त्व मानकर उसकी उपासना करता रहता है।
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